भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
देह यह बन जाए केवल पाँव / ठाकुरप्रसाद सिंह
Kavita Kosh से
देह यह बन जाए केवल पाँव
केवल पाँव
अब न रोकेंगे तुम्हें घर-गाँव
घन लखराँव
पाँव ही बन जाएँ
तेरी छाँव
ये अधूरे गीत
टूटे छन्द
जूठे भाव
इन्हें लेकर खड़ें कैसे रहें
बीच दुराव