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देह / कर्मानंद आर्य

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जिन्दगी का एहसास
अधूरेपन में खो गया
द्रष्टा और दृश्य
एकाकी हो गया

तुम्हारा शब्द
जिसको न मिल पायी पूर्णता
भावना की कोख
न उर्वर हो पायी
न बो पायी, शब्द बीज

प्यार पलता रहा
चलता रहा
अहर्निशं सेवामहे

तुमने जो पूछा था
यक्ष प्रश्न
देह का अर्पण क्या
प्रेम नही
मै सब जानता था,पर
तवायफ की देह!

शब्द वृत्त का आज भी
अपराधी हूँ

सीता स्वयंवर की तरह
मैंने शब्द चुना था
जिसे मेरे सिले होंठो ने
अचानक बुना था

शब्द दृश्य थे
हम द्रष्टा
था सत्य पर कड़वा

सच बोलो,
प्रिय बोलो
पर न बोलो
अप्रिय सच

जिसे
तब हमने जाना था
अब जी रहे हैं गीले अहसासों के साथ