दे गई है पाक पुड़ियों में ज़हर तिरछी हँसी / विनय कुमार
दे गई है पाक पुड़ियों में ज़हर तिरछी हँसी।
अब हंसेगा आपका सीधा शहर तिरछी हँसी।
स्याह बादल से ढंके हैं आजकल सातों फ़लक
है ख़ुदा के होठ पर आठों पहर तिरछी हँसी।
बेचने वाले इसे पर्वत बनाने लग गए
दे गयी सरसों बराबर एक डर तिरछी हँसी।
जोंक है डालो पसीने का नमक मारो इसे
मार सकती है लहू को चूसकर तिरछी हँसी।
ख़ूब भाते हैं इसे जनतंत्र के ढीले लिबास
फैल सकती है कि जिसमें उम्र भर तिरछी हँसी।
छेद कर हर जिल्द को दिल का लहू पीने लगी
होठ से झरकर गिरी थी कोट पर तिरछी हँसी।
फिर रहे हैं माँगते दिलक़श ठहाके ठौर अब
कर गई अच्छे मकीं को दर ब दर तिरछी हँसी।
प्यास बाँटी, कुएँ बेचे, दे गयी है फाव में
अक्ल को मेढ़क बनाने का हुनर तिरछी हँसी।
उफ़ ख़बर लेती नहीं है और देती भी नहीं
पर सितम यह रोज़ बनती है ख़बर तिरछी हँसी।