दे जाना चाहता हूँ तुम्हें.... / अशोक कुमार पाण्डेय
(वेरा की पांचवी वर्षगांठ पर)
ऊब और उदासी से भरी इस दुनिया में
पाँच हँसते हुये सालों के लिये
देना तो चाहता था तुम्हे बहुत कुछ!
प्रकृति का सारा सौन्दर्य
शब्दों का सारा वैभव
और भावों की सारी गहराई...
लेकिन कुछ भी नहीं बचा मेरे पास
तुम्हे देने के लिये !
फूलों के पत्तों तक अब नहीं पहुंचती ओस
और अगर पहुंच भी जाए किसी तरह
बिल्कुल नहीं लगती मोतियों सी!
समन्दर हैं तो अभी भी उतने ही
अद्भुत और उद्दाम
पर हर लहर लिख दी गई है
किसी और के नाम!
पहाड़ों के विशाल सीने पर
अब कविता नही
विज्ञापनों के जिंगल सजे हैं.
खेतों में अब नहीं उगते स्वप्न
और न बन्दूकें...
बस बिखरीं हैं यहां वहां
नीली पड़ चुकी लाशें!
सच मानो
इस सपनीले बाज़ार में
नहीं बचा कोई भी दृश्य इतना मनोहारी
जिसे दे सकूं तुम्हारी मासूम सी आंखो को
नहीं बचा किसी भी शब्द में इतना सच
जिसे दे सकूं तुम्हारे अंखुआते होंठो को
नहीं बचा कोई भी स्पर्श इतना पवित्र
जिसे दे सकूं तुम्हे पहचान की तरह!
बस
समझौतों और समर्पण के इस अंधेरे समय में
जितना भी बचा है संघर्षों का उजाला
समेटकर भर लेना चाहता हूँ अपनी कविता में
और दे जाना चाहता हूँ तुम्हे उम्मीद की तरह
जिसकी शक्ल
मुझे बिल्कुल तुम्हारी आंखो सी लगती है!