भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दे दी अपनी जान किसी ने धान उगाने में / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
Kavita Kosh से
दे दी अपनी जान किसी ने धान उगाने में।
मज़ा न आया साहब को बिरयानी खाने में।
जी भर खाओ लेकिन यूँ तो मत बर्बाद करो,
एक लहू की बूँद जली है हर एक दाने में।
पल भर के गुस्से में सारी बात बिगड़ जाती,
सदियाँ लग जाती हैं बिगड़ी बात बनाने में।
उनसे नज़रें टकराईं तो जो नुक़्सान हुआ,
आँसू भरता रहता हूँ उसके हरजाने में।
अपने हाथों वो देते हैं सुबह-ओ-शाम दवा,
क्या रक्खा है ‘सज्जन’ अब अच्छा हो जाने में।