भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दे पडूत्तर म्हारा भायला / वासु आचार्य

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

की करू
कीं नीं करू
मायसूं डरूफरू
ऊपर सूं जरू

अेक अजब अमूजो
अेक अणदीठ औजीसाळो
पसरतो जाय रैयौ है
म्हारै उण्डै तांई

क्या थारै नीं म्हारा भायला ?

आजू बाजू - आस पासै
बैवती पून मांय
नीं आय जाय
कोई भारास या खारास
नापतो रैऊ हवा रो रूख

हवा सूं हवा बणै
अर बिगड़ै भी है
ई खातर
दांत काढ़तो रैऊ
बात बात मांय
बात सूं बात बणावतौ रैऊ
अर ताकतो रैऊ लोगा रा चै‘रा
(क्या जकां रोज नीं बदळै ?)

भायलै रै कमरे मांय
टंग्यौड़ै मौटै दरपण मांय
देखतो रैऊ घणी बार
म्हारो आपरो‘ई चै‘रो
कोई जाण तो नीं रैयौ है
मायलै मूण्डै नै ?

क्या म्है‘ई हूं
डरूफरू मांय रो मांय
क्या म्हैं‘ई हूं
जरू ऊपर सूं ?

क्या थारी भी
आ हालत नी है
म्हारा भायला ?

आज री सुकड़ती बैला मांय
आज रै हाथीदांत रै
जीवण दरसण मांय
क्या है थारो पडूत्तर
दे पडूत्तर म्हारा भायला