दै छै ठिठुराय हो / ब्रह्मदेव कुमार
एŸोॅ लागै छै कैह्ने जाड़ हमरोॅ भाय हो।
बरफोॅ रोॅ ऐलोॅ रहै, बाढ़ जेना भाय हो॥
सर-सर बहै हवा दै छै ठिठुराय हो
कनकन्नों ठंडा सेॅ, देह ढलकाय हो।
लागै जेना देहोॅ में, सुईया भोकाय हो॥
जाड़ोॅ सेॅ सौसे देह, भेलै जेना सील हो
जाड़ें जेना ठोकै, करेजा मेॅ कील हो।
ठारोॅ रोॅ मारोॅ सेॅ, मोंन छटपटाय हो॥
सूरजोॅ रोॅ असरा में, पुरबें हियाय हो
घन्नों, कुहासोॅ में, कुछ नै सुझाय हो।
गायठोॅ आरोॅ लरूवा सेॅ घुर जराय हो॥
दिनें-दिन सुरुज, दूर चल्लोॅ जाय हो
सुरुज जŸोॅ दूर, केते धरती ठंढाय हो।
सुरुजोॅ केॅ कैह्नें, देलेॅ छै रूसाय हो।
भीतरी घरोॅ मेॅ नरुवा बिछाय हो
केबाड़-खिड़की बोंन तैय्यो सब्भे सरगदाय हो।
सब्भे बेकार भेलै, कम्बल-रेजाय हो॥
युक्ती-अहिबातिन कोय नै खिलखिलाय हो
रस्ता ताकी-ताकी आँख छलछलराय हो।
मटरी माय के ऐलोॅ छै कैह्ने जमाय हो॥