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दोनों पंख काट कर मेरे / अज्ञेय
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दोनों पंख काट कर मेरे-
मुझ को ला फेंका निर्मोही तूने किस घनघोर अँधेरे!
थे अभ्यासी प्राण अनन्त गगन में विचरण करने के-
गीतों में नभ, नभ में निज निर्बाध गीत बस भरने के।
किसी विफलता में सब हेरे।
आज तुम्हारी किरण कभी जो भटकी-सी आ जाती है-
अक्षमता के विवश ज्ञान से और मुझे तड़पाती है।
रो लेती हूँ आँखें फेरे।
किन्तु तुझे क्या कहूँ कि तूने ही उडऩा सिखलाया था;
क्षेत्र नहीं है, पर अनुभव-उपहार तुझी से पाया था।
प्राण ऋणी हैं फिर भी तेरे!
यद्यपि ला फेंका निर्मोही तूने किस घनघोर अँधेरे-
दोनों पंख काट कर मेरे!
1936