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दोपहरी के दलदल में / राजेन्द्र गौतम
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मायामृग के पीछे-पीछे
रथ को इतना दौड़ाया
भटके तो आ पहुँचे, देखो,
कितने गहरे जंगल में
मुझको मुझ तक लौटा लाए
वह पथ किससे पूछूँ मैं
कोई भी उत्तर देता है
कब यह बहरा सन्नाटा
परिचित पगडण्डी की काया
शिथिल पड़ी होकर नीली
ज़हरीले संशय-नागों ने
घात लगा उसको काटा
छूट-छूट जातीं हाथों से
संकल्पों की वल्गाएँ
ऐसे भी धँसता क्या कोई
दोपहरी के दलदल में ।
हमें विकल्पों में जीने का
दण्ड यही तो मिलना था
सूने सीवानों पर अंकित
अन्तहीन यह निर्वासन
कुहरे ढके कँगूरे वे --
सपनों के पीछे छूट गए
अब भावों के राजमहल का
ख़ाली-ख़ाली सिंहासन ।
बिजली-बादल
आँचल-काजल
रेशम कोंपल
स्वप्निल पल
अर्थ सभी के डूब गए हैं
अर्थहीन कोलाहल में ।