भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दोपहरी / महेन्द्र भटनागर
Kavita Kosh से
दोपहरी का समय
अनमना...... उदास,
मैं नहीं तुम्हारे पास !
एकाकी
तंद्रिल स्वप्निल
जोह रहा अविरल बाट
खोल कक्ष-<कपाट !
चिलचिलाती धूप
बोझिल बनाती और आँखों को !
साँय-साँय करती
लम्बे-लम्बे डग भरती
हवा-दूतिका
संदेश तुम्हारा कहती
मौन !
तभी मैं उठ
भर लेता बाँहों में
कर लेता स्वीकार
सरल शीतल आलिंगन
आगमन आभास तुम्हारा पाकर !
ढलती जाती दोपहरी
होती जाती अन्तर-व्यथा
गहरी....गहरी....गहरी !
::