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दोष / जितेन्द्र सोनी

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इतिहास के पन्नों पर
दोष छपा है
शकुन्तला तुम्हारा
क्यों नहीं बताया तुमने
समाज को
उस पुरूष के बारे में
जो खेला तुम्हारे तन-मन से
दोषी तुम भी हो उर्मिला
विरहणी बन
क्यों काटे तुमने
एकांत के वो साल
उस पति के लिए
जिसके लिए
तुम्हारा अस्तित्व
भाई के सामने गौण था
सीता क्यों दी तुमने
अग्निपरीक्षा
उस आदमी को
जिसके लिए
तुम्हारी पवित्रता
उसकी मर्यादा के सम्मुख
तुच्छ थी
दोषी तो उर्वशी व मेनका
तुम भी हो
क्यों बनी मोहरा
किसी पुरूष के लिए
किसी दूसरे पुरूष को
तप से डिगाने के लिए
द्रोपदी क्यों स्वीकारा तुमने
पाँच पुरुषों की पत्नी बनना
क्यों माता के आदेश की पालना में
तुम्हें आम उपभोग की वस्तु की तरह
बाँट लिया गया
दोषी हो तुम सब
तुमने दी है
पुरूष के अंह को तुष्टि
क्यों बना दिया उसे परमेश्वर
क्यों खो दी अपनी पहचान
क्यों कमतर आँका ख़ुद को
कैसे स्वीकार कर लिया
अपनी देहयष्टि दिखाकर
भोग का प्रतीक बनना
तुम्हारे बनाए गए क़दमों की राह
अब काँटों से भर गई है
अब पुरूष दे देता है
उर्मिला की तरह
एकांत की पीड़ा
शकुन्तला सुनो
आज भी तन-मन से खेलकर
दे देता है कोख को प्रस्फुटन
और बदनामी का भय
द्रोपदी तुम जान लो
आज बेचीं जाती है कोठों पर औरत
हर रात नए आदमी की अंकशायिनी बनने को
सीता तुम भी सुनो
आज भी देनी पड़ती है अग्निपरीक्षा
जीवन के हर मोड़ पर
उर्वशी व मेनका
मालूम नहीं है तुम्हे
आज प्रदर्शन कर शरीर का
रिझाने पड़ते हैं उपभोक्ता
अलग -अलग उत्पादों के लिए
तुम सब की खता
आज औरत की
भाग्य लकीर बन गई है
इसीलिए तुम दोषी हो
तुम गुनाहगार हो
आज की औरत की !