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दोसरॅ सर्ग: दसरथ / गुमसैलॅ धरती / सुरेन्द्र 'परिमल'

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कैकेयी के बात सुनी केॅ, अंग-अंग काँपी उठले।
पुत्र-प्रेम के लोक-लाज के भावॅ केॅ नाँपी उठलै।
टकरैलै कोय पहाड़ कहीं पर हिरदै केॅ झकझोरी केॅ।
उठलॅ छै झंझावात समय के रथ के पहिया मोड़ी केॅ।

उफनैलेॅ महासमुद्र प्रलय-लहरॅ पर जीवन बहलॅ छै।
छै चारो दीस अन्हार, बुद्धि चकरैलॅ छै टकरैलॅ छै।
सोचै में कुछ नै आबै छै है रघुबंशी के आनॅ पर।
ललकार आय कैन्हें पड़लै निष्ठा पर, बचनॅ मानॅ पर?

राजा छै हतोपरास, गोड़ सें धरती घसकी रहलॅ छै।
अनहोनी होनी होतै की माथॅ नै टसकी रहलॅ छै।
जे बंशें मान प्रतिष्ठा लेॅ अबतक सर्वस्व लुटैने छै।
सब सें ऊपर छै लोक-मर्म, यै मंत्रॅ केॅ अपनैने छै।

धरती पर जेकरॅ राज समय के चट्ठानॅ पर लिखलॅ छै।
गौरब-गरिमा के मानदण्ड जेकरॅ हाथॅ मंे टिकलॅ छै।
जेकरॅ प्रताप नै दण्ड, त्याग-तप के कोरा में बढ़लॅ छै।
धरती सेॅ धरती, जाय पुरन्दर के माथा पर चढ़लॅ छै।

जे बंशे नै जन्मैने छै राजॅ के लिप्सा बाला केॅ।
वें भूल करलकै आनी केॅ कैकेय देश के बाला केॅ।
कैन्हॅ शुभ घड़ी चुनलकै वें उलझन के जाल बुनलकै वें।
सब अरमान केॅ रूइया रं बातॅ में आय धुनलकै वें।

ठिक्के कहने छेॅ ‘त्रिया-चरित्तर केॅ दैवें नै जानै छै।
होय छै दुश्मन सतमाय, सभै के, लोगें ठीक बखानै छै।
ओकरा मतलब छै अपना सें, नै लोक-लाज के पर्दा छै।
अनहोनी घटेॅ, घॅर बिगड़ेॅ, ओकरा की? ऊ बेपर्दा छै।

सतमाय्ये छेकै कैकेयी, यें जीतें जी मारी देलकी।
अभिषेक होम के आगिन पर, ईरा-पानी ढारी देलकी।
नगरी सजलॅ छै दुलहिन रं सब सुख-सपना में डुबलॅ छै।
लेकिन केवल हमरॅ जीवन, सुक्खा पत्ता रं उड़लॅ छै।

कैन्हॅ अरमानॅ सें भरलॅ जीवन रंगीन मधुर छेलै।
मधुवन के फूलॅ-फूलॅ पर, कोयल-भमरा के सुर खेलै।
प्रेमॅ के सरिता घड़ी-घड़ी उमगै हिलकोरा मारी केॅ।
मिरगा सें बाघ मिलै छेलै प्रेमॅ सें बाँह पसारी केॅ।

आय्यो तेॅ वहेॅ अयोध्या छै, दुविधा में हमरॅ प्राण विकल।
छी साँप-छुछुन्दर रं पड़लॅ, छै विश्वासॅ पर विजयी छल।
जे बंश उजागर जुग-जुग सें एक्को धब्बा नै जेकरा में।
जेकरा सें जुग रङलॅ ऐलै, शीलॅ के गरिमा जेकरा में।

लाजॅ केॅ दै केॅ मान, लोक में जें अस्थापित करने छै।
खुद लाज वही बंशॅ के आगूँ आबी धरना धरने छै।
हे रात! नै कखनू प्रात करॅ झाँपलॅ छै अपमानित जीवन।
सूर्यॅ के साथें जागी केॅ छी-छी करतै ब्याकुल जन-जन।

ढोबॅ साँसॅ के भार, नै खाली जीयै के माने छेकै।
जीवन सुन्दर, सपना-विचार आदर्शॅ के खाने छेकै।
जेकरॅ सीमा नै, अन्त-हीन, गैहडॅ़ अथाह सागर नाँखीं।
जेकरॅ अटूट क्रम सें बँधलॅ छै जनम-जनम सें मन-पाखी।

संसार अजूबा रंग-महल, आना जाना छै प्राणी केॅ।
लेकिन कलंक के धब्बा सें बचलॅ रहना अभिमानी केॅ।
मोहॅ के दुनियाँ बड़ा कठिन, मकड़ा के जालॅ रं पड़लॅ।
सुलझै के बदलाँ उलझै छै, फँसलॅ जीवन फँसले रहलॅ।

राजा के मोह उमड़लॅ छै, उलझन सें बिलकुल भरलॅ छै।
पीड़ाँ छाती केॅ फाड़ै छै, हूलॅ जीवन केॅ चीरै छै।
जे राम आँख के तारा छै, जीवन के मात्र सहारा छै।
जेकरा देखी केॅ जीयै छी, जीवन केॅ सफल बनैने छी।

जे माय-बाप के प्राण छेकॅ जीवन-धन जोवन सार छेकॅ।
परिजन-पुरजन के इष्ट छेकॅ, सबके जीवन अरमान छेकॅ।
हौ केना वन-बासी बनतॅ, केना जीबॅ मन मारी केॅ?
सुख में पललॅ जे जीवन छै, दुख-मय जीवन केना जीतॅ?

सुनथैं रानी कौशल्या पर, सीता बेटा पर की बिततै?
लोगॅ के नजरीं-नजरीं में कैन्हॅ भाषा उड़तै, तिरतै?
भरतॅ केॅ राज मिलेॅ, एकरा में सबके खुशी समैलॅ छै।
चौदॅ बरसॅ लेॅ, की जीवन भर लेॅ ई राज थम्हैलॅ छै।

पर रामॅ के बनवास यहेॅ, यै कुल के महा कलंक भेलै।
मानी रघुबंशी आय महाराजा सें दर-दर रंक भेलै।
लेकिन छै रानी जिद्दॅ पर, लागै छै होनी होना छै।
सब मान प्रतीष्ठा यै कुल के ईरा-पानी सें धोना छै।

तड़पै छै राजा पीड़ा सें, कैन्हॅ गति में पड़लॅ जीवन।
है कोन कर्म के फल मिललॅ, है कोन सरापॅ के गंजन?
श्रवणॅ के वध अनचोके ठक माथा सें आबी टकरैलै।
अब तक अनबूझ पहेली केॅ समझी केॅ माथॅ चकरैलै

ब्राह्मण के बाणी सच होय के उपयुक्त समय आबी गेलै।
बेकार कोसना छै केकरहौ, होतब छेलै, होतब छेलै।
रजा के खुललॅ आँखी में अपना दोषॅ के पंुज खड़ा।
आरो कैकेयी के निर्मल निर्दोष, चपल सुन्दर मुखड़ा।

निष्पाप रूप कैकेयी के देखी राजा निर्भ्रान्त भेलै।
जेना अन्धड़ के आबै के पहिने-पहिने सब शान्त भेलै।
कर जोड़ी राजाँ भगवानॅ केॅ अनुनय-विनय सुनाबै छै।
बेटा-वियोग सें दग्ध हृदयँँ अन्तिम इच्छा दोहराबै छै।

हे प्रभो! हरॅ ई प्राण, जगै सें पैहने नगर-निवासी के।
रघुकुल के लाज बचावॅ मानी-ध्यानी के, विश्वासी के।
हे राम! प्राण-प्रिय राम!! असह पीड़ा-मूर्छां मुर्छाय गेलै।
स्वप्निल जीवन सें निकली केॅ पूर्णॅ में पूर्ण समाय गेलै।