दोसर मुद्रा / भाग 1 / अगस्त्यायनी / मार्कण्डेय प्रवासी
राजसी रागकेर भाव-भूमि कल्याणी
ब्रह्मत्व जगाब चललि ऋद्धि ब्रह्माणी
प्रियतमक प्राण पथपर
यौवन रथ ढुलकल
जनु मूल ग्रंथ भावना
अनूदित अविलकल
मुद्राहोना मुद्रा साधना शिवा बनि
उत्तंग शिखरसँ उतरि बहलनि मन्दाकिनि
धरतीक ताप संताप
हरण आशा ल’
लोपामुद्रा चलली
अछि योग जगाब’
दिव्यता प्रेरणा लोकक प्रणय पुजारिन
ऋतु मानि प्रेमके भेलि प्रसन्न सुहागिन
मानसाकाशमे-
भाव चन्द्र आरोहण
संकल्प सिद्धि साधन
सम्मत सम्मोहन
बाजलि लोपा: ‘‘जय जन्मभूमि, जय जननी!
जय शस्य श्यामला, सुजला सुफला अवनी!
ई भूमि जत’ पओलक
विश्वक मानवता
ऋजुता, उदारता
शुचिता शान्ति, सुगढ़ता
मानवी प्रकृतिकेर अन्तर्जगतक भाषा
अमरत्व वरण हित उदयाचल जिज्ञासा
दर्शन, इतिहास, स्वधर्म
नीतिमे अनुपम
कर्मण्य शिखरर
काव्य शक्ति संवर्द्धन
ज्यौतिष, विज्ञान, गणित यज्ञाग्नि प्रसू हे!
धारणा शक्ति संयम प्रशस्त सुर भू हे!
पुलकित लगैत अछि
हृदय प्राण मन काया
भागल लगैछ दुविधाक
आसुरी माया
कल्पना किरण निर्माणक कथा कहै’ अछि
भारत भविष्य गाथाके स्वयं पढ़ै’ अछि
रहते न अधिक दिन
आब हिमालय शंकित
रहते न मनुक संततिकेर
भाल कलंकित
पशुताक प्रबलता एहि सकते नहि धरती
हरियर भविष्यकेर हेतु रहओ बरु परती
आक्रमण आब कथमपि
गुमसुम नहि सहबे
अपने आंगनमे आन
बनल नहि रहबे
आवश्यक छै, विज्ञान सुलभ अन्वेषण
आणविक मंत्रगत तंत्र-यंत्र परिशीलन
देशद्रोही आसुरी शक्ति
नहि सीमित
तव भंगक स्वर षड्यंत्र
कतहु अनियोजित!’’
लोपामुद्राक हृदय मन आकुल व्याकुल
ऋषिश्रेष्ठ अगस्त्यक चरण कमल रज आतुर
वल्कल, मृगचर्म
तपोपरिधान प्रयुक्त
कर्त्तव्य भावना ज्ञान
सुरभि संयुक्ता
आशीष पिता माताक माथपर धयने
प्रियतमक हृदयमे हृदय प्राण मन कयने
गंगा द्वारक दिस चललि
प्रियक अनुगामिनि
संयम सेवा शीतलता
मयि सौदामिनि
सहसा आकाश मेघ मण्डित भ’ उठलै’
सिहकलै वायु, बिजुरी कड़कैत चमकलै’
यद्यपि वयस्क मन
तदपि कारुणिक क्षणमे
उमड़लै नोर-
लोपामुद्राक नयनमे
नैहरक मोह टूटैछ न अन्तर्मनसँ
वैराग्य कठिन होइछ परिजन पुरजनसँ
आपादशिरा विह्वला
भेलि अछि लोपा
किछु डेग बढ़लि
आ शिला भेलि अछि लोपा
सोचैछ: पिता माताक निकटता छूटल
वात्सल्य अचानक आइ गेल अछि लूटल
‘‘अपराध हमर बिसरब
हे सखी बहिनपा
देने होयत दुख-
बहुत रास ई लोपा
जकरा ले’ पृथक राज प्रासाद बनल छल
जे सभ ऋतुमे कुहुकैछ, वैह कोकिल छल
चौकरा भरै’ छल
जकरा देखि मृगी-दल
से आइ आन बनि गेल
भेलि अछि दुर्बल
रखबैक मोन माँ हे, लोपा नेना अछि
बुझबैक अहींकेर उद्यानक गेना अछि
माल्यार्पित हो वा
देव चरणपर चर्चित
अछि फूल अहँक ई
अहँक नेहके अर्पित
हे सुग्गा, हे मैना, हे प्रासाद वैष्णवी!
सुख पओलक अछि बहुत विदर्भ कुलक ई बेटी
शक्ति दिय’, बढ़ि सकी
कर्म पथपर आगाँ हम
खींचै’ अछि पाछाँ-
ममता बनि क बीतल क्षण’’
रोम-रोम कारुण्य कथामे रमि गेलै’ छल
नयनक जल झरि टघरि चरणधरि बहि रहलै’ छल
फँसल जालमे, जेना-
माँछ छटपटा रहल हो
अथवा पिंजड़ामे-
पंछी कछमछा रहल हो
लगलै’ लोपाके कि आब बन्धन नहि टूटत
बहब धारमे, नेह-नाह एही ठाँ छूटत
जनु झंझामे वल्लरीक
सम्बल छूटै’ छै’
अथवा निर्जन वनमे
अपराधी लूटै’ छै’