दोसर मुद्रा / भाग 2 / अगस्त्यायनी / मार्कण्डेय प्रवासी
तहिना विदा कालके दस्यु बूझि क’ लोपा
कछमछा उठलि, छटपटा उठलि, बनि बिजलौका
श्लथ शरीरके कम्पित
चरण थाम्हि नहि सकलै’
‘माँ गे माँ’ कहि क’ लोपा
धरतीपर खसलै’
किछु क्षण हेतु विदा होइत लगलै’ चेतनता
लगलै’ दृगक नामपर बचलै’ अछि पपनी टा
बांमा हाथे आँखि कपार
दाबि रखने छलि
लोपा, दहिना हाथे
छातीके दबने छलि
चिर-परिचित सन एक अपरिचित हाथ पीठपर
सटल पाबि, लोपाक तर्जनी बढ़ल सी थपर
अग्र दिशा दर्पणमे-
नव दम्पति प्रतिबिम्बित
प्रगतिकाम, अविराम
प्राणमे पुलक अपरिमित
करुण भाव शृंगारित भ’ ओजस्वी बनलै’
लोपा उठलै’, पतिक संग सासुर दिस बढ़लै’
दू टा नीलकंठ पक्षी
दहिना दिस उड़लै’
शुभ यात्राक शकुन
लोपाक प्राणमे जगलै’
गामक सीमा पार अश्ववाही रथपर चढ़ि
पवन वेगसँ संग-संग मन हृदय रहल बढ़ि
केवल एक विराम
निशामे, हरद्वारधरि
लोपामुद्रा चकित, ऋषिक
ई चमत्कार लखि
लगलै’ जनु प्रकृतिक कण कणमे स्वागतमय स्व्र
अनुभव कयलक, पाबि गेल अछि ओ अलभय वर
पथपर रथ वायुक गतिसँ
बढ़ि रहल छलैए
लोपा मनमे सुखद
भविष्यक मूर्ति गढ़ए
चारू भाग हरियरी, वासन्ती मादकता
लोपाके देलकै’ प्रकृति अनुपम आपकता
शीतल वायुक मधुर स्पर्शसँ
प्राण गमकलै’
रंग विरंगक दृश्य देखि क’
नयन चमकलै’
उपवन बँटलक सुरभि, मृगीक मनोहरता वन
वक्ष देल नव-नव पक्षी युग्मक स्वर संगम
ठाम-ठाम गिरि नमस्कार
कयलकै’ नमित भ’
लोपा मुदित अलौकिक
आनन्दक अनुभव क’
कतहु नदी फेनोज्ज्वल धारक थार सजौलक
स्वागतमे निर्झर हृदयक सभ तार बजौलक
वन्दनवार सजौलक
चम्पा, हेना, अरहुल
बिसरि गेल लोपा-
भौतिक सम्पन्न्ताक सुख
सिंगरहार आँजुरभरि कतहु झरल छल रथपर
कतहु हरिण-हरिणी भगैत छल आगाँ पथपर
कतहु सघन वनमे-
घन भ्रममे मोर नचै’ छल
नहि लोपाक नयनमे
अनुपम दृश्य अँटे’ छल
उद्वेलित भ’ उठल असमतल पथपर जँ रथ
पुरुष प्रकृतिसँ सटल, न कोनो अंग रहल श्लथ
रोम रोममे काव्य व्योम
हो समा गेल जनु
अथवा प्रलय क्षेत्रमे
श्रद्धा पाबि गेल मनु
कामायिता दिव्यता क्षणभरि हेतु सदेहा
पथाचार संयमसँ शिष्ट अगेह-अगेहा
सूझल धवल हिमालय
उत्तरमे पसरल सन
बूझल: आब न दूर-
रहल अछि हरद्वार वन
कहलनि ऋषि-‘हे लोपे! आश्रम आबि रहल अछि
इ्र शुभ यात्रा लक्ष्य स्थलके पाबि रहल अछि
देखि अहाँके हरद्वार
उत्सवित लगै’ अछि
सहयात्रिणी! की कहू
केहन भाव जगै’ अछि!
प्रथम बेर कोनो महिलाक स्पर्श भेटल अछि
अविवाहित रहबाक हस्त रेखा मेटल अछि
आश्रममे होयत पहिले
महिलाक पदार्पण
गृहलक्ष्मी! हम करब
अशेष अभावक अर्पण
राजमहल एवं आश्रममे बहुत भेद अछि
हे गृहिणी! तैयो नहि हमरा दुःख खेद अछि
ब्रह्मचर्य वाक्यक विराम
बनि क’ अयलहुँ अहँ
त्यागि राज पथ, त्यागक
ग्राम-मार्ग धयलहुँ अहँ
ऋषि छी, ते सम्पत्ति न संचित क’ सकलहुँ हम
धन्य अहीं सन पत्नी जे पति भ’ सकलहुँ हम
भूमि हमर आधार
गगन आदर्श रहल अछि
ब्राह्मण छी, ब्रह्मत्वे टा
निष्कर्ष रहल अछि
अछि प्राकृतिक सम्पदा ठाम-ठाम पसरल सन
जतबे देखि सकब, ततबे पायब चिन्तन धन
जे न इष्ट, तकरा विशिष्ट
नहि मानि सकत मन
हे अपूर्व सुन्दरी! अहीं-
टा छी संचित धन’’
बिहुँसलि लोपा, देखि ऋषिक सात्त्विक मुखमंडल
निर्मल देह, नेह निर्मल, मन प्राणो निर्मल
बाजलि: ‘‘अछि सौभाग्य हमर
जे अहँक संग छी
हे रत्नाकर! हम अही क
निश्छल तरंग छी
ऋषि पत्नीत्वे टा विराट वैभव देलक अछि
एक अहाँके पाबि, भाग्य सभ किछ लेलक अछि’’
अयलै’ हरद्वार वन
आश्रममे रथ रुकलै’
उतरबाक सुविधाक हेतु
घोड़ा किछ झुकलै’
स्वयं प्रकृति परिछन कयलकै’, गीत गओलक खग
पओलक लोपामुद्रा जीवनमे सात्त्विक मग