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दोसर सर्ग / कच देवयानी / मुकुन्द शर्मा

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शुक्राचार्य के आश्रम

स्वर्ग छोड़के उतर रहल हें कच धरती पर,
नंदन कानन छोड़ आ रहल हें परती पर।
स्वर्ग कल्पना सुर के कुसुम गंध के कारण,
स्वर्ग पहुँचला से न होतै सब कष्ट निवारण।
कच के मन के छलक रहल हे भाव गगरिया,
यथा अंधरिया रात आ रहल भरल इंजोरिया।
अकर्मण्य आलसी नींद सुख के उपभोगी,
 स्वर्गलोक में कजैन मिलला हमरा योगी।
धरती के सब लोग स्वर्ग ले हे लालायित,
मगर स्वर्ग कर्मठ नर ले है अव्याख्यायित।
फैलल धरती पर सगरो बस काम-काम है,
धरती पर आराम न काम तो सुबह शाम है।
धरती पर जे काम करे हे ओकर नाम है।
ई धरती मजदूर कृषक ले बड़ा धाम है।
जेकरा बाजू में ताकत जे हल जोते हे,
घर जोड़े जे राजश्रमिक घर के पोते है।
धरती पर सब धन्य कर रहल जे मजदूरी,
अंसतोष से नय कुछ मिलतै सत्य सबूरी।
धरती पर कच देखलक हें फैलल हरियाली,
स्वर्गलोक धरती के सुन्दरता से खाली।
तपस्थली हे धरती धरती बड़ी पुरानी,
सत्य, साधना, साधक के हे महत् कहानी।
ऊपर तो कपोल कल्पना कर्मठता से दूर,
कमा रहल हें धरती पर सब कृषक और मजदूर।
धरती पर है असल स्वर्ग लेकिन हे मारामारी,
सत्ता पावे ले धरती पर व्याकुल है संसारी।

हम देखलों हें स्वर्ग न कोई है आकर्षण,
सगर देवता कर रहला हें छुच्छे भाषण।
जहाँ शांति, सद्भाव, प्रेम सुख-दुख के संगी,
शिक्षा और अनाज मिले कुछ नय हो तंगी।
कन्या के हर नगर-डगर में जहाँ हे आदर,
भूख, गरीबी के न जहाँ बरसे हे बादर।
जहाँ न हिंसा, भय, बीमारी या हे शोषण,
बचपन के सहना न पड़े जब कभी कुपोषण।
वहैं स्वर्ग है जहाँ परस्पर भाईचारा,
जहाँ न कहलावे कोई भी नर बेचारा।
जहाँ गरीबी और भूख के कजै ने दर्शन,
सबसे बड़ा स्वर्ग है ऊ सबके आकर्षण।
धरती हे यथार्थ, स्वर्ग है बड़ी कल्पना,
स्वर्ग निहार रहल धरती के सुंदर सपना।
उतर रहल हें स्वर्ग धरा पर गुरु पावेला,
पहुँच रहल हें स्वर्ग धरा-महिमा गावेला।
धरती हे धनधान्यपूर्ण सर-सरिता-सुंदर,
लहर रहल हें तीन तरफ से बड़ा समंदर।
गंगा, काबेरी, सतलज, ब्रह्मपुत्र या कृष्णा,
मिटा रहल हें जनजन के अनादि से तृष्णा।
सोना उगल रहल हें धरती भारत माता,
ई धरती के देख दंग रह गेला विधाता।
सब देवता चाहे होवे धरती के दर्शन,
धरती हे तपधाम जनम दुर्लभ हे नरतन।
स्वर्ग सदा से धरती आगे रहल भिखारी,
ई मनुष्य भगवान बने के हे अधिकारी।
समय-समय पर नरतन में भगवान आ गेला,
असुर आर पापी के छांटलका हें ई मेला।
शुक्राचार्य महाज्ञानी पंडित हथ नामी,
हमरा शिष्य बनावे ले भरता ऊ हामी।
बड़ी परीक्षा से हमरा हे आगे जाना,
ज्ञान और विज्ञान असुर गुरु बड़ा खजाना।
उतरल कच के रथ में अपार हे चिंतन,
विंध्याचल के पास उतर कच कैलक मंथन।
निविड़ निशा बीतल पहुँचल प्रभात के लाली,
प्राची के नम में पहुँचल उपवन के माली।
खिलल कमल सरिता में, पाटल महंक रहल हें,
विटप डाल टहनी पर चिड़िया चहक-रहल हें।
उषा बहू के माथा पर सुहाग के सेनुर,
राग प्रभाती के गावे खग अनुपम हे सुर।
छीट रहल हें बाारुण नदिया में सोना,
ई प्रभात से दमक रहल दिन सब्हे कोना।
वन पशु पक्षी जाग रहल हंे बितल अंधेरा,
रंभा रहल हें गाय दुधारू जगल बसेरा।
मंद पवन सिहकावे लता पता पर सोना,
ढरक रहल हें ओसबिन्दु सौन्दर्य सलोना।
हिरण कुलाँच भरे हे वनपाखी बोले हे,
मंद पवन से पीपरपात बहुत डोले हे।
कच विंध्याचल के शोभा देखे हे अनुपम,
हरित भरित हे लतागुल्म, घाटी हे चमचम।
पर्वत नदी नर्मदा के पानी हे निर्मल,
घाट मनोहर सगर दिख रहल पावन कज्जल।
माँ रेवा विंध्यांचल के लग रहल हें भूषण।
पर्वत के तलहटी पास नय कजै प्रदूषण।
कल-कल छल-छल नदी धार पथरीली धरती,
दूर-दूर तक फैलल है पहाड़ या परती।
रेवातट पर ज्ञानी गुरु के गुरुकुल आश्रम,
यहाँ पहँुचला पर मिट जाहे सब संसय भ्रम।
रेवातट पर पर्णकुटी गुरु शुक्र वास हे,
शुक्राचार्य असुरगुरु के फैलल विभास हे।
फुदक रहल मैना कपोत घुटरूँ घूँ बोले,
कीर और गोरैया भी सब चंचू खोले।
अक्षत चावल चुगे फुदक के बायस जोड़ा,
हिरण कुलाँच भरे हे ज्यादा, बछड़ा थोड़ा।
शशक गिलहरी घूम रहल हें पूरा निर्भय,
शुक्राचार्य के कीर्ति-कहानी सब दिन अक्षय।
शस्त्र और शास्त्रों के ज्ञाता पंडित ज्ञानी,
विंध्य और रेवातट पर के अद्भुत ध्यानी।
हवनकुंड में सुलग रहल हंे पावन आगी,
ई आश्रम में रहे बसे ऊ हे बड़भागी।
नीम, कदम्ब, रसाल, बकुल के सघन छांह हे,
सब पर शुक्राचार्य महामुनि सबल बांह हे।
शंकर सुवन महातेजस्वी परम यशस्वी,
शुक्राचार्य धरा से स्वर्गलोक वर्चस्वी।
जपतप के साकार रूप मुख आभा मंडित,
शुक्राचार्य त्रिलोकों के सम्मानित पंडित।
परम प्रतापी असुरों के युग-युग से गुरु, हथ,
संजीवनी विद्या के ऊ रहला हें मथ।
असुर सबके विजयी होवे के मंत्र ज्ञान हे,
संजीवन विद्या के केवल इनके ध्यान हे।
माँ नर्मदा प्रणाम कर रहल हल गुरु कन्या,
प्राची सुंदरता लख के ऊ अति हल धन्या।
अल्हड़ वन्या नदी-सदृश हल ऊ संुदरता,
चपला जैसन कांति वन्य नीरव मर्मरता।
कच पहुँचल रेवातट के कुटिया के आगे,
मुंहमांगा मिल गेल ओजा कच अबकी मांगे।
कच विमुग्ध सुंदरता देख निहाल हो रहल,
जैसन देखलक ऐसन रूप अरूप हल भरल।
सुंदरता के भी सुंदर कर रहल हें तरूणी,
धरती से अंवर तक ऐसन कजै ने रमणी।
फीका पड़ल चाँद पाटल मुंह छिपा रहल हें,
उषा सुंदरी में एकरे से चहल-पहल हे।
स्वर्ग सुन्दरी लगे कि ई तरुणी के दासी,
अनुपम है अव्यक्त सुंदरी कुटिया वासी।
पहुँच पास में कच धीरे से हाथ जोड़ लक,
तों केहा देवी कच उनकर ध्यान मोड़लक।
तरुणी मुड़के देखलक रूप अनुरूप छटा हे,
सुंदरता हे बरस रहल ई कौन घटा हे,
अब तक ऐसन सौंदर्य न देखलक सुन लक,
मन ही मन ई सुन्दरता के बड़ गुण गैलक।
दिव्य रूप, आकर्षण हे आपाद शिखर तक,
ऐसन मोहक रूप, विधाता धड़कन धक धक।
उतरल हें मनोज धरती पर रूप मनोहर,
कौन लोक के ई तरुणाई बड़ी धरोहर।
ंग-अंग से छलक रहल हें, सुन्दरताई,
धरती धन्य आज एकरा से ऊ शरमाई।
गौरांगी तन, गठल शरीर दीप्त हे आनन
उतरल साथ हवा सुरभित खिल रहल हें कानन।
नत नयना निहारलक कचके धीरे बोलल,
शुक-सुता हम देवयानी ही तन मन डोलल।
तों परिचय दा काहे ले आश्रम में अयला,
तोरा पास में अपर लोक के लगे हे थैला।
स्वागत हे आश्रम में कैसे कहाँ से अयला,
हम तो परिचय देलूँ तों अब तक नय बतैला।
रूपधूप दितराल सगर गुरु के हे गरिमा,
धरती आर आकाश मिलल ई गुरु के महिमा।
जेसन रूप बैसने बाणी मधु मिश्रित हल,
शुक्रसुता ई आश्रम के हे दर्पण निर्मल।
सरगुरु बृहस्पति के हम ही तनय नाम कच,
विद्या सीखे ले अइलो गुरुशुक पास बोलो ही सच-सच।
गुरु शुक्राचार्य के सगर महिमा के डंका,
हथ त्रिलोक में बड़क ज्ञानी कजैन शंका।
शुक्राचार्य महाज्ञानी के शिष्य बनम हम,
उनकर कृपा के मेघ बरसतै हर हर बम-बम।
देवयानी ई सुनके अप्पन आँख उठैलक,
ई बड़का आश्चर्य, असंभव बात बतैलक।
देव असुर के वैर नया नय बहुत पुराना,
सुरगुरु सुत के हमर पिता नय देता खजाना।
घास उगाना अपन हथेली पर असान हे,
सुर के ज्ञान ऊ कभी न देता अकल्यान हे।
सुरगुरुसुत के हमर पिता नय शिष्य बनैता,
अपना हित ले ओकरा तो ऊ दूर भगैता।
बड़ी असंभव बात कान तों खोलो सुनला,
कभी ज्ञान नय देेथुन पिताजी मन में गुनला।
क्रोध आग में अपने जलथुन तोरो भगैथुन।
तरुण लौट जा बिना शुक्र के दर्शन कैने,
देर करो नय ई आश्रम में रूको कजैने।
होल हताश निराश तरुणकच खाली बादर,
तैयो शुक्रसुता से बोलल देको आदर।
ज्ञानी, विज्ञानी, गुरुवर के बड़ी नाम हे,
शिष्य कृपा करना भी उनकर बड़ा काम हे।
कल्पवृक्ष गुरु हमर प्रार्थना पर पसीजता,
हम्मर सेवा से ऊ अपने आप रीझता।
ज्ञान गंगा हथ, प्यासल के देता ऊ पानी,
देवि हमर तों बनो सहायक हे कल्याणीं
हमर प्रार्थना के तों उनका तक पहुँचावो,
अपन पिता से शिक्षा के तों ज्ञान दिलावो।
हम जानो ही अमला-घवला के ऊ सुनता,
कल्याणी जे कुछ कहबै ऊ निश्चित गुनता।
कहके मौन बनल कच देवी से कैलक आशा,
बदलो लगल प्रेम-परिचय के तब परिभाषा।
एक दूसरा के निहारलक तखने मनभर,
तरुण, उभय आत्मा के कंपित हल अथ्यंतर।
कच के वाणी में मिठास हल मिसरी घोलल,
पवन पुरविया के कम्पन से पेड़ो डोलल।
रेवा के जल के समान मन भाव उमड़लै,
नेह बदरिया बरसे ले तब ओजा घुमड़लै।
शुक-सुता के तरुण-विनय पर मन पसीज लै,
हावभाव के देख समझ कच बहुत रीझलै।
गुरु से चलो निवेदन करबै बैठ पास में,
बीतल पूजा समय चलो अब ज्ञान-आस में।
शुक्रसुता आगे-आगे पीछे से कच हल,
कच के हृदय बहुत निर्मल हल तरुणी-संबल।
पिता पुछलका बेटीकहो कहाँ के राही,
आश्रम में काहे ले अयला की अब चाही?
सुरगुरु पुत्र पिताजी तोरा से ज्ञान-याचना,
पहुँचल हे शिष्यत्व पावे ले बड़ी साधना।
सुनते गुरु के माथा ठनकल बिजली चमकल,
क्रोधानल आनन कठोर गुरुवर जी बमकल।
असुर-शत्रु के हम नय कहियो शिष्य बनैबै,
हम तो बृहस्पति पुत्र के ज्ञानी नय बनैवै।
ज्ञानदान से कमी न आवे पइते समता।
छलछदमी के सुर भेजलक हें भेद जाने ले,
सुरपुर से धरती तक नव षड्यंत्र ताने ले।
असुर-जीत के भेद जाने ले आल हें भेदिया,
कह पुत्री हम एकरा देवै कैसे विद्या।
शुक्रासमर के नीति देवताके न सिखैवे,
हमें शत्रु के आश्रम से अब दूर भगैवै।
कैसे साहस कैलक हें ई वापस जारे,
आश्रम के धरती पर फेर कभी नै आरे।
गुरु गंभीर घोष से तखने धरती डोलल,
दिशा सन्न रहगेल उड़ल सब पंछी बोलल।
लगल के वाणी के आँधी में कच उड़ जैतै,
क्रोध अग्नि में ऊ जलै या विद्या पइतै।
लगल कि फटलै आसमान दरकल ज्वालामुख,
सुख भागल कचके समक्ष फैलल हल बड़ दुख।
सुनो पिताजी गुरु-शिष्य के ज्ञात कहानी,
ब्रह्मवंश के तों साकार करो अब वाणी।
तों त्रिलोक के जानल मानल तापस ज्ञानी,
सब जाने हे तों धरती पर के विज्ञानी।
शरणागत में आल शिष्य के तों अपनावो,
याचक के झोली भरदा सब बात बतावो।
ज्ञानोदधि के पास आलहें नीर पिये ले,
तृषित, थकित याचना कररहल बहुत जिए ले।
विद्या के याचक के कुछ तो ज्ञान दान दा,
सुरगुरु हका महान पुत्र के तहूँ मान दा।
असुर शत्रु के ज्ञान-दान में बड़ी दोष है,
सुर के प्रति सब असुर राज में बढ़ल होश है।
असुर विरोध करो लगतै तब की हम करवै,
दोनों के बड़की खाड़ी के कैसे भरवै।
मगर पिताजी तोराबाद तोरज्ञान रहे भी,
इहे ले एकरा ज्ञान दान दा सदा चले भी।
शुक्र नरम पड़ला सुनके कच गिरल चरण में,
मनसावाचा आर कर्मणा पड़ल शरण में।
हे गुरुदेव ज्ञानदा अप्पन शिष्य बनावो,
एक अकिंचन के अपना शराणत लावो।
तृषित विहग सरिता से लौटत कैसे प्यासल,
रिक्त घड़ा लेको पहुँचत कैसे उदवासल।
नयननीर से कच गुरुजी के पाँव पखारलक,
सुरपुर याचक है धरती पर ऊ न हारलक।
धरती से खाली लौटम हम कैसे सुरपुर,
मिसरी घोलल बोल बोललक मधु से भी मधुर।
हे गुरुवर! हे ज्ञानी, ध्यानी हे विज्ञानी,
तों धरती पर हा महान युग-युग के प्राणी।
शिष्य बनावो, अपन ज्ञान के बोध करावो,
मनसा वाचा और कर्मणा अब अपनावो।
हम सेवक स्वामी तों हमरा ज्ञान सिखावो,
हे गुरुवर सुरगुरुसुत के निज निकट बुलावो।
कहके मौन बनल कच तब गुरु-सुता बोललक,
सुरपुर शराणागत में हे सब बात खोललक।
ब्रह्मवंश के परंपरा के खूब बढ़ावो,
कचके शिष्य बनावो गुरु विद्या सिखलावो।
गुरु पसीजला देवयानी पुत्री के प्रार्थना,
कच के उठा लगैलका छाती सच होल सपना।
आश्रम के अनुशासन के कच माने पड़तो,
तभिए गुरु के ज्ञान हृदय से सुमन झरतो।
सुता देवयानी आश्रम के निपुणा कन्या,
देख-देख वनवासी नरनारी सब धन्या।
दोनों तों संवाद-सूत्र से जुड़ते रहिहा,
हमर सुताके सभे बात सब दिन तों सुनिहा।
ज्ञान प्राप्ति के उहे तोरा सोपान बतैलको,
उहे प्रेम से तोरा पास में हम्मर लैलको।
देवयानी के अनुवर्ती होके तों रहिहा,
ऊ कुछ कहे मगर ओकरातो कुछ नय कहिहा।
ला हम्मर आशीष तोरा हम ज्ञान सिखैवो,
सुरपुर के सपना हे धरती के गुण गइवो।
धन्य होलकच कहलक हम गुरु-सुता के आज्ञाकारी,
हमरा अपने शिष्य बनैलखिन हम ही बड़ आभारी।
आन्म के सब नियम-उपनियम कच माने हे,
देवयानी के कहला पर सबकुछ जाने हे।