भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दोस्ती कुछ नहीं उल्फ़त का सिला कुछ भी नहीं / सलमान अख़्तर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दोस्ती कुछ नहीं उल्फ़त का सिला कुछ भी नहीं
आज दुनिया में बजुज़ ज़ेहन-रसा कुछ भी नहीं

पत्ते सब गिर गए पेड़ों से मगर क्या कहिए
ऐसा लगता है हमें जैसे हुआ कुछ भी नहीं

कल की यादों की जलाने का जलाएँ मषअल
एक तारीक उदासी के सिवा कुछ भी नहीं

ढूँढना छोड़ दो परछाईं का मसकन यारो
चाहे जिस तरह जियो इस में नया कुछ भी नहीं

इक बुरोटस से षिकायत हो तो दिल दुखता है
हो जो हर एक से षिकवा तो गिला कुछ भी नहीं