भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दोस्त के इंतज़ार में / गगन गिल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दोस्त के इंतज़ार में उसे बहुत डर लगा

स्मृति में खरोंचा उसने
धुंधलाया चेहरा उसका
निकालकर पिटारा उस रात
देखीं सब तस्वीरें
रंगों का धब्बा रह गया था दोस्त
सिर्फ रंगों का धब्बा
दोस्त के इंतज़ार में उसे बहुत डर लगा

दोस्त के इंतज़ार में
भूलकर अब तक की मनौतियां
मनाया उसने
कि दोस्त न आए,
कुछ हो जाए
और दोस्त न आए,
कि जितने भी बची है स्मृति सुख की
बच जाए,
कि उससे दूर जाकर वह कहीं भी छिप जाए
रात के अंधरे में या दिन की चकाचौंध में

दोस्त के इंतज़ार में
वह एक जगह पहुंची -
सुख दुःख से परे
स्मृति-विस्मृत से परे
इच्छा-अनिच्छा से परे
इंतज़ार के तपते हुए चेहरे के ऐन पास

घर्र-घर्र दौड़ते गाड़ी के पहिए
घर्र-घर्र घूमती पृथ्वी की धुरी
घड़ी की सुई,
उजाड स्टेशन पर टंगा
इंतज़ार करता पब्लिक टेलीफोन
घर के फोन की उलझी हुई तारें

बहुत सालो बाद
उस रात उसने देखा
धीरे धीरे उगता सूरज
बहुत सालों बाद सुना उस रात
दिन का शोर
शहर में फटता हुआ,
बहुत अरसे बाद सुनी ख़ामोशी उसने
शहर की आत्मा की

आईने के सामने जाकर उस रात
देखा उसने खुद को
बहुत दिनों बाद –
कहीं वह बदल तो नहीं गई थी?

अपने भीतर के शोर से
उसे उसे बहुत डर लगा.