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दोस्त / मोहन कुमार डहेरिया

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हर साल की तरह

इस बार भी आया दोस्त


लेकिन नहीं लगाये

आत्मा तक को खिलखिला देनेवाले घूंसे

नहीं लगाया अट्टाहास

नहीं सुनाई कविता

न घूरकर देखा

रम के पैग के छोटे-बड़े हो जाने पर


बल्कि धीरे-धीरे दिखाते रहा

तकलीफ़ों के कोलतार में झुलस गए पैरों के तलुवे

विस्फोटक पदार्थ सा छाती पर बैठा

जवान बहनों की शादी का बोझ

यह वह समय था,

सामने थी हाल ही में आई मेरी नई किताब

और गनगना रहा था कमरा पूरा

पिछवाडे लगे कनेर के फूलों की खुशबू से

लेकिन नहीं दिखाई उसने

किसी में भी रुचि

बताते रहा

पैतृक मकान हड़प लेने की चाचा की करतूतें

ठीक होली के दिन

एक सांड के उन्मत हो जाने के किस्से

और अंत में एक लंबी साँस ले सो गया


इस बार दोस्त कब आया, कब गया

पता ही नहीं चला