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दोहन / प्रगति गुप्ता
Kavita Kosh से
छाती से चिपका हुआ
वह मासूम निरीह
बिफ़र-बिफ़र कर अपनी भूख में
उसकी ममता तलाश रहा
जिसके झोपड़े का चूल्हा
तीन-चार दिनों से
किसी बर्तन का मुख नहीं देख रहा...
सूनी आँखों से अपनी इसी देह को
तपते चूल्हों पर,
जाने कितनी ही बार चढ़ाती रही
लिए आस भरने को पेट
अपने इसी मासूम का,
नित ही देह दोहन करवाती रही...
सब खरीदार भी उसके जैसे ही थे
एडवांस में चढ़ती देह के
मूल्य चुकाने के
वादे सब भविष्य से जुड़े थे...
भूख और गरीबी
चार ईटों के चूल्हे पर ही
दिन रात चढ़ती रही
ईंधन के साथ-साथ
अंदर बाहर दोनों से तपती रही...
इन चूल्हों पर
चढ़ने और जलने वाले
तिल-तिल भस्म होते रहे
जिनके परिणाम
अनचाहे ही जन्मे मासूम
अनजाने ही-
जाने किन जन्मों के कर्मो के दंश,
जन्म जन्मांतरो तक भोगते रहे...