दोहावली-4 / बाबा बैद्यनाथ झा
नहीं समझ पाया कभी, जीवन का अंदाज।
राजा रंक बना कभी, कभी रंक को राज॥
अन्य जनों की खामियाँ, सदा खोजते लोग।
निज अवगुण दिखता नहीं, अजब मानवी रोग॥
फल पूरित उस पेड़-सा, झुकता है शालीन।
दुर्जन सूखे पेड़-सा, निज घमंड तल्लीन॥
जिसका उच्च निवास है, मगर नीच करतूत।
'बाबा' उससे दूर रह, वह सद्यः यमदूत॥
शब्दों में है 'ओम' ही, परमेश्वर का नाम।
वैसे तो हर जीव में, कण-कण में हैं राम॥
क्या देखा तुमने अभी, कवि में कितना ओज।
शब्द-शब्द में ब्रह्म हैं, खोज सको तो खोज॥
जब-जब धरती ने किया, प्रभु से करुण पुकार।
हर युग के नव रूप में, हुआ राम अवतार॥
उदय अस्त दोनों समय, सूरज होता लाल।
सुख-दुःख में जो सम रहे, वह है संत कमाल॥
नव बसंत आया सखे, आयी नयी उमंग।
कुछ तो होना चाहिए, उत्सव तेरे संग॥