दोहावली-7 / बाबा बैद्यनाथ झा
गुण-अवगुण से युक्त सब, होते हैं इंसान।
बनते अपने कर्म से, दनुज कभी भगवान॥
श्रद्धा देती ज्ञान फिर, नम्र बने तो मान।
जगह दिलाती योग्यता, तीनों मिल सम्मान॥
सुख-दुख तो प्रारब्ध है, जिसको कहते भाग्य।
सब भोगो निर्लिप्त रह, यही मात्र वैराग्य॥
कड़वी गोली को निगल, लेता है इंसान।
आगे बढ़ जा भूलकर, छल, धोखा, अपमान॥
यह कहना 'मैं श्रेष्ठ हूँ' यही आत्मविश्वास।
मैं ही केवल श्रेष्ठ हूँ, झूठा है अहसास॥
मन विषयी, बंधन लगे, मन ही देता मोक्ष।
मन ही बंधन-मोक्ष का, कारण जान परोक्ष॥
इस तकनीकी दौर में, मानव मात्र मशीन।
नहीं बची अब भावना, सब संवेदन हीन॥
कलम उगलती आग जब, शब्द-शब्द में जोश।
देश समझ लो जग गया, दुश्मन सुन बेहोश॥
कागा जब कुचरे कभी, होता शुभ संकेत।
प्रिय पाहुन हैं आ रहे, तेरे शीघ्र निकेत॥