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दोहावली / तुलसीदास / पृष्ठ 35

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दोहा संख्या 340 से 350


स्ुकृत न सुकृती परिहरइ कपट न कपटी नीच।
मरत सिखावन देइ चले गीधराज मारीच।341।

सुजन सुतरू बन ऊख सम खल टंकिका रूखन।
 परहित बनहित लागि सब साँसति सहज समान।342।

पिअहिं सुमन रस अलि बिटप काटि केाल फल खात।
तुलसी तरूजीवी जुगल सुमति कुमति की बात।343।

अवसर कौड़ी जो चुकै बहुरि दिएँ का लाख।
दुइज न चंदा दखिऐ उदौ कहा भरि पाख।344।

ग्यान अनभले को सबहि भले भलेहू काउ।
सींग सूँड़ रद लूम नख करत जीव जड़ घाउ।345।

तुलसी जग जीवन अहित कतहुँ कोउ हित जानि।
सोषक भानु कृसानु महि पवन एक घन दानि।346।

सुनिअ सुधा देखिअहिं गरल सब करतुति कराल।
जहँ तहँ काक उलूक बक मानस सकृत मराल।347।

जलचर थल चर गगनचर देव दनुज नर नाग।
उत्तम मध्यम अधम खल दस गुन बढ़त बिभाग।348।

बलि मिस देखे देवता कर क मिस मानव देव।
मुए मार सुबिचार हत स्वारथ साधन एव।349।

सुजन कहत भल पोच पथ पापि न परखइ भेद।
करमनास सुरसरित मिस बिधि निषेध बद बेद।350।