दोहावली / तुलसीदास / पृष्ठ 50
दोहा संख्या 491 से 500
लोगनि भलो मनाव जो भलो होन की आस।
करत गगन केा गेंडुआ सो सठ तुलसीदास।491।
अपजस जोग कि जानकी मनि चोरी की कान्ह।
तुलसी जु पै गुमान को होतो कछू उपाउ।
तौ कि जानकिहि जानि जियँ परिहरते रधुराउ।493।
मागि मधुकरी खात ते सोवत गोड़ पसारि।
पाप प्रतिष्ठा बढ़ि परी ताते बाढ़ी रारि।494।
तुलसी भेड़ी की धँसनि जड़ जनता सनमान।
उपजत ही अभिमान भो खोवत मूढ़ अपान।495।
लही आँखि कब आँधरे बाँझ पूत कब ल्याइ।
कब कोढ़ी काया लही जग बहराइच जाइ।496।
तुलसी निरभय होत नर सुनिअत सुरपुर जाइ।
सो गति लखि ब्रत अछत तनु सुख संपति गति पाइ।497।
तुलसी तोरत तीर तरू बक हित हंस बिडारि।
बिगत नलिन अलि मलिन जल सुरसरिहू बढ़िआरि।498।
अधिकारी बस औसरा भलेउ जानिबे मंद।
सुधा सदन बसु बारहें चउथें चउथिउ चंद।499।
त्रिबिध एक बिधि प्रभु अनुग अवसर करहिं कुठाट।
सूधें टेढ़े सम बिषम सब महँ बारह बाट।500।