दोहा दशक-4 / गरिमा सक्सेना
आँगन में काँटे बिछे, राहों में बारूद।
चिथड़ा-चिथड़ा मन हुआ, घायल हुआ वज़ूद।।
नई सदी यह किस तरह, बाँट रही परिणाम।
बोकर पेड़ बबूल के, लोग पा रहे आम।।
रही सुबकती रातभर, दुखिया की आवाज़।
गौरैया रोती रही, बरी हो गये बाज़।।
शहरों में भी हो गया, जंगल जैसा हाल।
छिपे हुए हैं भेड़िए, पहन भेड़ की खाल।।
जंगल करता रात में, शावक का आखेट।
आश्वासन की पट्टियाँ, दिन में रहा लपेट।।
राजनीति ने सीख ली, अब यह कैसी चाल।
हर मछली के प्रश्न का, उत्तर है घड़ियाल।।
बाँटी जिसने रोशनी, दिया सत्य का साथ।
काट दिया उस सूर्य का, इस सत्ता ने हाथ।।
जिन आँखों में थे बसे, इस उपवन के ख़्वाब।
आज उन्हीं में दिख रहे, जलते हुए गुलाब।।
अक्षर- अक्षर प्यास का, रहा जहाँ पर बीत।
गाता वो मरुथल भला, क्या पलाश का गीत
यक्ष प्रश्न पूछो नहीं, क्या आयेगा हाथ।
छोड़ युधिष्ठिर ने दिया, आज सत्य का साथ।।