दोहा द्वादशी / सुनीता पाण्डेय 'सुरभि'
दर्पण में देखा सखी, जब निज रूप निहार।
दिखलाई मुझको दिया, तब खुद का किरदार॥1
श्रद्धा का शाश्वत शिखर, दया-धर्म की धाम।
माँ ममता की मूर्ति है, नित उठ करो प्रणाम॥2
माटी में मिल जायगा, तन का क्या अभिमान।
जो आया वह जायगा, जग का यही विधान॥3
कुछ भी तो शाश्वत नहीं, सबका अपना काल।
जग का यही विधान है, संशय हृदय निकाल॥4
विधना ने ऐसे रचे मन-मानस में चित्र।
तन विरक्त—सा हो गया, मन हो गया पवित्र॥5
मधुरिम बेला प्रेम की, साजन मेरे पास।
सावन, भादों, चैत सब, लगे मुझे मधुमास॥6
नींद किनारा कर गई, जागी सारी रात।
प्रियतम! तेरी याद में, बिखर गये जज्बात॥7
याद तुम्हारी आ रही, उर में उठे हिलोर।
भूल गये हो क्यों मुझे, ओ मेरे चितचोर॥8
सपने में साजन मिले, उर में उठी उमंग।
विह्वल मन है चाहता, नींद न हो अब भंग॥9
मन ही जब स्थिर नहीं, तब क्या पूजा-पाठ।
पढ़ा रही है ज़िन्दगी, सोलह दूँनी आठ॥10
आँखों से होती रहे, बिन सावन बरसात।
मन बौराया—सा लगे, शिथिल हो गया गात॥11
अपने-अपने भाग्य का, सभी भोगते भोग।
भाग्य बने निज कर्म से, यही नियति का योग॥12