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दोहा मन्दाकिनी, पृष्ठ-37 / दिनेश बाबा

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289
फूल नहीं कैक्टस बनो, ‘बाबा’ युग अनुरूप
तन सें नै, अब आदमी, मन सें हुवै कुरूप

290
हिन्दी के परचार कम, बेसी हुवै विरोध
भाषाई विद्वेष रो, पनपल छै अवरोध

291
जातिवाद, क्षेत्राीयता, नें पीलेॅ छै भांग
उठी रहल छै आजकल, सगरो अनुचित मांग

292
रोग बढ़ै के पूर्व ही, ‘बाबा’ करो उपाय
काट जहर के, जहर छै, जहरे छिखै दवाय

293
कहिनों अजगुत काल नें, चुनै मौत के ढंग
कहीं सुनामी जलजला, काहीं सिन्धु तरंग

294
‘बाबा’ की करभो कहो, पढ़ि पढ़ि लया किताब
पत्नी के ताना कहै, आदत छिकै खराब

295
आँखो के पुतली आरू, अंगूली के छाप
बारीकी में होय छै, अलगे सबरो माप

296
नक्सलवादी लोग के, जे बनलो छै मैठ
हुनकर बढ़लो जाय नित, जनमानस में पैठ