भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दोहा मन्दाकिनी, पृष्ठ-51 / दिनेश बाबा
Kavita Kosh से
401
धोॅन कमैतै वें कना, जे बैठै निश्चिन्त
रस नैं चूसै जड़ अगर, फूल न लागै वृन्त
402
‘बाबा’ बिन उद्योग के, धन न रहै छै साथ
काहिल कोसै भाग केॅ, धरी कपारें हाथ
403
‘बाबा’ स्वास्थो पर रखो, कस्सी करी नकेल
घर फोड़ी के जारथौं, छै विनाश के तेल
404
‘बाबा’ मत देखो एना, उंच्चो उंच्चो ख्वाब
सुख चाहै जे श्रम बिना, खसलत छिकै खराब
405
तन के दुख सें कष्टकर, छै मन के संताप
मोॅन नियंत्रित करी लेॅ, सुख छै अपने आप
406
परिवारो में छौं अगर, कत्तो वाद-विवाद
समझौता होतै जहाँ, कायम छै संवाद
407
‘बाबा’ नै पनपेॅ दहू मन में कोय अभाव
घायल होथौं नहीं तेॅ, आपस के सद्भाव
408
खूब तपी के सूर्य सें, धरती जब अकुलाय
मौनसून चढ़ी पवन रथ, बादल ले लेॅ आय