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दोहा मन्दाकिनी, पृष्ठ-73 / दिनेश बाबा
Kavita Kosh से
577
यारो में झलकै जबेॅ, हद सें जादे ऐंठ
‘बाबा’ दूरे तों रहो, साथें कभी न बैठ
578
कोय डँसै जौं साँप रं, लगै कष्टकर दंस
फन चूरै के चाहियो, जना चुरैलै कंस
579
‘बाबा’ केरो दोसती, जैरों मानस हंस
मैत्राी के मोती चुगै, त्याग करै अवतंस
580
आपस में कायम रहै, अगर प्रेम सदभाव
बड़ी सरलता सें चलै, जीव जगत के नाव
581
पत्ता-पत्ता जिन्दगी, में भेलो छै छेद
पर्यावरन के नाश छै, ऐ में की मतभेद
582
टुकड़ा-टुकड़ा जिन्दगी, में भरलो अवसाद
कहिनों होतै सोचियै, सौ सालो के बाद
583
एक दिनों में नैं कभी, बदलै छै इतिहास
सदियों बीती जाय छै, तब होथौं अहसास
584
के बूझै छै ज्ञान केॅ, कहिनों हुवै पियास
जीयै के देथौं यही, समझी लेॅ विश्वास