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दोहा सप्तक-10 / रंजना वर्मा

सुख का स्वागत सब करें, दुःख को रहे निकाल।
शरणागत को हृदय में, हम ने लिया संभाल।।

बंटवारा ऐसा हुआ, ज्यों कलयुग का पाप।
माता तो यमपुर गयी, कहाँ रहेगा बाप।।

ऊपर तो सूरज तपे, नीचे तपता कर्ज
कौन बचाये कृषक को, लाइलाज है मर्ज।।

बना दरोगा कम पढ़ा, दे कर धन का ढेर।
है अंधे के हाथ भी, लगती कभी बटेर।।

धरा तवा सी तप रही, बरस रही है आग।
छाया को तरुवर नहीं, अब तो मानव जाग।।

चमक रही विद्युल्लता, गरज रहे घन घोर।
ग्रीष्म वाष्प पंछी उड़े, चले गगन की ओर।।

यादें मीठी नीम सी, तड़का मन महकाय।
मन पंछी व्याकुल उड़े, वहीं जाय मण्डराय।।