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दोहा सप्तक-67 / रंजना वर्मा

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चलने को हो सत्य पथ, सिर पर प्रभु का हाथ।
अनाचार से हो न भय, सृजन शक्ति दे साथ।।

हों न नयन देखें जिन्हें, सपने चकनाचूर।
कभी किसी भी हाल में, कलम न हो मजबूर।।

पानी से भर गागरी, ले आयी बरसात।
छलक छलक गिरती रही, भू पर सारी रात।।

झोंका शीतल पवन का, सुन पड़ता घन नाद।
नभ में बादल फिर दिखे, बहुत दिनों के बाद।।

अब सूरज भी थक चला, बरसा कर अंगार।
तन मन शीतल कर गयी, बरखा की बौछार।।

बदली में चंदा दिखा, नाचा चतुर चकोर।
नीलकण्ठ फिर उड़ चला, दूर क्षितिज की ओर।।

मेघ गगन में घिर रहे, नाचे मत्त मयूर।
बिना दिये बरखा तरल, अब मत जाना दूर।।