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दोहा - 1 / रत्नावली
Kavita Kosh से
जो जाको करतब सहज, रतन करि सकै सोय।
वावा उचरत ओंठ सों, हा हा गल सों होय॥
रतन दैवबस अमृत विष, विष अमिरत बनि जात।
सूधी हू उलटी परै, उलटी सूधी बात॥
उर सनेह कोमल अमल, ऊपर लगें कठोर।
नरियर सम रतनावली, दीसहिं सज्जन थोर॥
तरुनाई धन देह बल, बहु दोषुन आगार।
बिनु बिबेक रतनावली, पसु सम करत विचार॥
स्वजन सषी सों जनि करहु, कबहूँ ऋन ब्यौहार।
ऋन सों प्रीति प्रतीत तिय, रतन होति सब छार॥