दोहा / गुरुचरण सिंह
अब त एह संसार में, अइसन बहे बतास।
खुश नइखे लउकत केहू, दुनिए भइल हतास ॥1॥
दुनिया के अब देख लीं, बदल गइल बा ढंग।
रफ्ता-रफ्ता हो गइल, अदिमी के दिल तंग ॥2॥
कथनी करनी में भइल, जग में अतना फर्क।
अविश्वास संत्रास में, भइल जिन्दगी गर्क ॥3॥
स्वार्थ नीति में हो रहल मानवता के लोप।
एक दोसरा पर सभे, लावे नित आरोप ॥4॥
घटल स्नेह संतोष सुख, घटल प्रेम व्यवहार।
शांति सरोवर में इहाँ, बढ़ल द्वेष सेवार ॥5॥
घूम रहल दुसुमन जहाँ, धर साधू के भेष।
भय लालचवश चूप सब, कइसे बांची देश ॥6॥
कहींना लउके बइठका, ना बरगद के छाँव।
ना अदिमी में प्रेम बा, कहाँ गइल ऊ गांव ॥7॥
जात पात मजहब बनल, राजनीति के मंत्र।
आपस में जनता लड़ी, तबे न बांची तंत्र ॥8॥
मंदिर मस्जिद चर्च में, बनल रही जब भेद।
कागज के ई कोठरी, लउकी तबे सफेद ॥9॥
बेमतलब अब हो गइल, गीता के उपदेश।
द्रोपदी के बाजार में, रोज खिंचाता केश ॥10॥
बड़ा बेचारा बन गइल, बा बेटी के बाप।
भइली धिया दहेजबिन, पुरुब जनम के पाप ॥11॥
आजो दुनिया में चले, देव दनुज संग्राम।
आतंकी रावन बनल, शांतिवादी राम ॥12॥
ईर्षा लालच द्वेषवश, अमन चैन मोहाल।
आतंकी साया तले, बा जिनिगी बदहाल ॥13॥
स्वारथ वश पुरुषारथी, सघलस एहिजा मौन।
आततायी संसार में, करे जे चाहे तौन ॥14॥
मानवता के आड़ में, पले हजारो धर्म।
राष्ट्रप्रेम ना बुझ सकी, ऊ का जानी मर्म ॥15॥
बड़ा कठिन अब हो गईल, शत्रु मित्र पहचान।
सत्ता धन सुविधा बदे, जात हजारो जान ॥16॥
राष्ट्रवाद के नाम पर, होत धिनौना खेल।
डाकू भोगे राजसुख, साधूभोगे जेल ॥17॥
यद्यपि एह संसार में, मतलब के वेवहार।
बकिर सऊसे सृष्टि में, प्रेम तत्व बा सार ॥18॥
आज चतुर्दिक हो रहल, भीषण अत्याचार।
जुल्मी के पूंजेबदे, बा अदिमी लाचार ॥19॥
रोज कहे अलगा कर, धर्म अउर रजनीति।
उहे धर्म प्रचार में, लाल कइसन रीति ॥20॥
अजब रीति आतंक के, जे सींचे हरषाय।
जब घहरे ओकरा घरे, रोवे आपछताय ॥21॥
प्रेम जहाँ उपजत रहे, ओहिजा उपजे द्वेष।
हंसी खुशी देखावटी, सभका हिदें क्लेश ॥22॥
जिअल भइल जिनिगी कठिन, घेरलस अतना काम।
हर अदिमी बेचैन बा, नइखे तनिक आराम ॥23॥
टी.वी. घर में आ गइल, बिगड़ गइल वेवहार।
सीरियल फिलिम देख के, बेटा भइल बेकार ॥24॥
सावन में पछेया बहल, भादो पुरूब बेयार।
ना जाने कइसे तबो, असो परल सुखार ॥25॥