भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दोहा / भाग 10 / बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

शरह जुन्हाई अब कहाँ, कहाँ बसन्त उछाह।
जीवन में अब बचि रह्यो, चिर निदाध कौ दाह।।91।।

जीवन के मधु स्वप्न वे, हास-लास-रस-रंग।
सकल तिरोहित ह्वै गयै, प्राण तिहारे संग।।92।।

स्मृति तैं ह्वै जात है, मानस में कल्लोल।
नैनन तें बहि बहि उठत, अबस अबोले बोल।।93।।

यह जीवन की दुपहरी, भई अटपटी साँझ।
तम की झाँई परि गई, तुम बिन या हिय माँझ।।94।।

जिय सूनौ, सूनौ हृदय, तन मन प्राण उदास।
भली भई तुम सँग गई, जीवन की सुख आस।।95।।

वा तन की केवल भसम, आज बचि रही शेष।
यह परिवर्तन ठाढ़ हम, लखत रहे अनिमेष।।96।।

धू-धू करिके बरि उठी, उतै चिता की आग।
इति हिय धधकी होलिका, बिन फागुन बिन फाग।।97।।

मानव ने नव जनम कौ, लख्यौ प्रात को हास।
पुनि वाते जन्मान्त कौ, लख्यौ उदास अकास।।98।।

अब तौ तुम बिन दृगन में, भरी रहैगी रात।
एक कहानी ह्वै गई, अब प्रभात की बात।।99।।

बसी रहै तव हृदय में, संस्मृति बनी अनूप।
सरसावहु मन गगन बिच, कछु छाया कछु धूप।।100।।