दोहा / भाग 10 / मतिराम
फूलति कली गुलाब की, सखि यह रूप लखैन।
मनों बुलावति मधुप कों, दै चुटकी की सैन।।91।।
करौ कोटि अपराध तुम, वाके हिए न रोष।
नाह सनेह समुद्र में, बूड़ि जात सब दोष।।92।।
कौन भाँति कै बरनियै, सुन्दरता नंद-नंद।
वाके मुख की भीख लै, भयो ज्योतिमय चंद।।93।।
सरनागत पालक महा, दान जुद्ध अति धीर।
भोगनाथ नरनाथ यह, पग्यो रहत रस बीर।।94।।
जब लौं सजनी बोलियै, ये गरबीले बैन।
जब लगि तुम निरखे नहीं, भोगनाथ के नैन।।95।।
तुरग अरब ऐराक के, मनि आभरन अनूप।
भोगनाथ सों भीख लै, भए भिखारी भूप।।96।।
मुरलीधर गिरिधरन प्रभु, पीताम्बर घनश्याम।
बकी बिदारन कंस अरि, चीर हरन अभिराम।।97।।
पीत झुँगुलिया पहिरि कै, लाल लकुटिया हाथ।
धूरि भरे खेलत रहे, ब्रजबासिन ब्रजनाथ।।98।।
तिरछी चितवनि स्याम की, लसति राधिका ओर।
भोगनाथ को दीजियै, यह मन सुख बरजोर।।99।।
मेरी मति में राम हैं, कवि मेरे मतिराम।
चित मरो आराम में, चित मेरे आराम।।100।।