दोहा / भाग 10 / राधावल्लभ पाण्डेय
घामहु मिलत न दीन को, कुहरे की भरमार।
यथा विजैता बिजित को, हरत सहज अधिकार।।91।।
हरिथर तरु फूले फरे, बिनसत पाला माहिं।
नेटि व पर-साम्राज्य में, यथा मिटाए जाहिं।।92।।
ठिठुरत चलत न हाथ पग, थर थर काँपत अँग।
जिमि जनता नृप दमन सों, होति त्रसित अरु तंग।।93।।
फस्ल रबीअ खरीफ सस, लम्बी बाढ़त नाहिं।
बढ़त न जिमि स्वाधीन सम, पराधीन जग माहिं।।94।।
तरु न अंकुर अंकुरित, होत ठंड सो नाहिं।
करि नसकत उन्नति यथा, दास दासता माहिं।।95।।
तजि कछु धनिक हिमन्त में, कोउ सुखी नहिं आज।
पक्ष विशेषहिं सुख लहत, पक्षपात के राज।।96।।
सूर-करावलि हू सिथिल, सकत नसीत हटाय।
हठी नृपति को हठ यथा, नीति न सकत घटाय।।97।।
पीतर पानी फेरि कै, बेंचति सुबरन रंग।
को न खटाई में परत, परे सुनारिन फंग।।98।।
नव कलवारिन मद भरी, मद को मजा चखाइ।
मूसि लेत धन धाम सब, सुधिा बुधि देत भुलाइ।।99।।
सौदा बाँकी बनिन का, करता बाहर बाट।
इससे जाता है उलट, बड़ों बड़ौं का ठाट।।100।।