भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दोहा / भाग 10 / रामसहायदास ‘राम’

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

भोरहि चखनि चकोर कों, धनि धनि दियो अनंद।
चाहि कियो नँननंदमुख, चंद अहो सुखकंद।।91।।

चतुराई लिक चपलई, धिकधिक कारे काग।
तोहिं अछत निघरक रहैं, कूकत पिंक कुल बाग।।92।।

हौं बुझयो कबरीन सों, क्यों कारी दरसाइ।
कही जु रवि सममुख रहै, सो कारो ह्वै जाइ।।93।।

मेरे और कपोल नहिं, अरु मैं हूँ नहीं और।
ईठि आज पी दीठि कों, दीठि और यहि ठौर।।94।।

मुख देखन कों पुरबधू, जुरि आई नँद नंद।
सब की अँखियाँ ह्वँ गई, घूँघट खोलत बन्द।।95।।

हेरि हरी अचरज भरी, कहत खरी करि सोर।
दिनहिं तरनिजा तीर री, कूजित मुदित चकोर।।96।।

सखि हरि राधा सँग दिन, चले बिनि की ओर।
लखि अनंद सों सोर करि, दौरै मोर चकोर।।97।।

तारे तरनि दुरे भए, मुकुलित सरसिजु दोइ।
सखि प्रभात तम-तोम मैं, सोस सुहावन जोइ।।98।।

श्री राधा माधव हमैं, निति राखो निज छाँह।
मेरो मन तुम मैं बसो, तुम मेरे गन माँह।।99।।

कलित ललितई सतसई, रामसहाय बनाय।
हरि राधाहि नजर दई, अजर लई रति पाय।।100।