दोहा / भाग 10 / रामेश्वर शुक्ल ‘करुण’
समुभि न आवै हिन्दुओ, तुम्हरे हाथन हाय।
कैसे भारत भूमि पर, कटतीं कोटिन गाय।।91।।
पूँछ कटी, ग्रीवा फटी, लटी-लटपटी देह।
जीभ कढ़ी, खैंचे लढ़ी, आँधी, आतप मेह।।92।।
प्रबल बिजेता, शक्तिधन, ईश्वर भक्त अनन्य।
तपोनिष्ठ, कर्मठ, सुधी, महा मोहम्मद धन्य।।93।।
नीति-निपुन, शासन-सुपटु, साधक युक्ति अकाट।
मुगल-राज-बर मोलि-मनि, धनि अकबर सम्राट।।94।।
सुदृढ़-समुन्नत ह्वै फरो, अकबर के बर-बारि।
उखरो मुगल, सुराज-तरु, नवरँण नीति-कुदारि।।95।।
फूलो-फलो स्वराज को, सुखदायक बर-बाग।
चपरो करी पजारि कै, नवरँण नीति दबाग।।96।।
मिले सुजल-पय प्रेम सों, हिन्दू-मुस्लिम भाय।
मजहब की काँजी परे, बहुरि गये बिलगाय।।97।।
हिन्दू-मुस्लिम बन्धु दोउ, रे एक रँण चीन्ह।
कटुता की पुट दै मनहुँ, नवरँण नवरँण कीन्ह।।98।।
मजहब के कीटाणु की, छायी ऐसी छूत।
अब लौं बैर-बिरोध ते, भारत भयो न पूत।।99।।
युवा-कृषक-श्रमकार की, तरल त्रिवेनी तीर।
कोटि-कोटि जन जाति के, न्हाय नसैहैं पीर।।100।।