दोहा / भाग 10 / हरिप्रसाद द्विवेदी
लाल तिहारी लाड़िली, तुव गोकुल की गाय।
कटति आजु गोपाल हा, क्यों न बचावहु धाय।।91।।
अपनावत अजहूँ न जे, अपनहिं अंग अछूत।
क्यों करि ह्वै है छूत वै, करि कारी करतूत।।92।।
जहाँ बाल-विधवा हियें, रहे धधाकि अंगार।
सुख-शीतलता कौ तहाँ करिहौ किमि संचार।।93।।
है स्वदेश मख-वेदिका, अबरु आहुति मम-प्रान।
कोटि जन्म हूँ नाथ जनि, जावै यह अभिमान।।94।।
जाव भलैं कुरुराज पै, धारि दूत-वर वेश।
जइयो भूलि न कहुँ वहाँ, केशव द्रोपदि केश।।95।।
चूसि गरीबनु कौ रकतु, करत इन्द्र सम भोग।
तउ गरीब परवर उन्है, कहत अहो ए लोग।।96।।
क्षात्र धर्म यश-कौमुदी, कृष्ण-रूप-रुचि राग।
होउ हरे संगमु सदा, यहै सुहाग प्रयाग।।97।।
मन-मोहिनि वै सतसई, हिरनी-सी सुकुवाँरि।
कहा रिझैहै ररिक-मन, यह सिंहिनि भयकारि।।98।।
उर-प्रेरक श्रीहरि भये, भई प्रगटि लाहौर।
सत सइया पूरन भई, पदमावती सुठौर।।99।।
चैत्र-सुदी-सुभ पंचमी, वेद सिद्धि निधि इन्दु।
करी समापत सतसई, हरी सुमिरि गोबिन्दु।।100।।