दोहा / भाग 1 / बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’
जीवन-तरल-तरंगणी, सूखि भई कृश-धार।
द्वेष-मत्त जग ने दियौ, यह निदाध-उपहार।।1।।
जग प्यासौं अवलोकि कैं, हम भरि लाए नीर।
फूटि गई गगरी, लगे उपालम्भ के तीर।।2।।
साँझ भई, सूरज भयौ, पश्चिम दिशि की ओर।
नभ अँधियारौ बढ़ि चल्यौ, हिय कसकी निशि चोर।।3।।
सोच भयो हिय देखि कैं, अपनी जीवन साँझ।
दिन की घड़ियाँ रहि गईं, हाय बोझ की बाँझ।।4।।
नेह दियौ निष्ठा सहित, पाई घृणा अपार।
सेवा कौ मेवा मिल्यौ, यह कृतघ्न व्योहार।।5।।
बोल्यो नेह पपीहरा, जीवन तरु पर बैठि।
पिऊ? पिऊ? की ध्वनि गई, अन्तरिक्ष में पैठि।।6।।
अरुणा भई विभावरी, ढूँढ़त पिउ की ठाँव।
कितै पिया की डगरिया, कितै पिया को गाँव।।7।।
निखिल सौर मण्डल बन्यौ, सजन सुमिरनी काल।
घूर्षित त्रिभुवन रव भर्यो, नाम-स्मरण सब काल।।8।।
रवि शशि तारक वृन्द लौं, गूँजि रह्यो पिय नाम।
ढूँढ़ि थके अणु-अणु उन्हें, पर न ढरे घनश्याम।।9।।
जीवन डगर
नापत जीवन डगरिया, आइ गये इहि ठाँव।
हिम थाक्यो, जिय थकि गयौ, थके बापुरे पाँव।।10।।