दोहा / भाग 1 / मतिराम
मो मन तम-तोमहि हरौ, राधा को मुखचंद।
बढ़ै जाहि लखि सिंधु लौं, नँद-नंदन आनन्द।।1।।
राधा मोहन लाल कौ, जाहि न भावन नेत।
परियौ मुठी हजार दस, ताकी आँखिनि खेह।।2।।
कत सजनी है अनमनी, अँसुवा भरति ससंक।
बड़े भाग नँदलाल सों, झूँठहु लगत कलंक।।3।।
औगुन बरनि उराहनो, ज्यों ज्यों ग्वालिनि देहि।
त्यों-त्यों हरि तन हेरि हँसि, हरषति महरिहि येहि।।4।।
पानिप मैं धर मीन को, कहत सकल संसार।
दृग-मीननि को देखियत, पानिप पारावार।।5।।
नींद भूख अरु प्यास तजि, करती हो तन राख।
जलसाई बिन पूजिहैं, क्यों मन के अभिलाख।।6।।
तेरी मुख समता करी, साहस करि निरसंक
धूरि परी अरविंद मुख, चंदहि लग्यो कलंक।।7।।
कहा भयो मतिराम हियँ, जो पहिरी नंदलाल।
लाल मोल पावै नहीं, लाल गुंज की माल।।8।।
गुन औगुन को तनकऊ, प्रभु नहिं करत विचार।
केतक कुसुमन आदरत, हर सिर धरत कपार।।9।।
निज बल के परिमान तुम, तारे पतित बिसाल।
कहा भयो जु न हौं तरतु, तुम न खिस्याहु गुपाल।।10।।