दोहा / भाग 1 / रामसहायदास ‘राम’
श्री स्यामा कों करत हैं, राम सहाय प्रनाम।
जिन अहिपतधर कों कियौ, सरस निरन्तर धाम।।1।।
अरुन अयन संगीत तन, वृन्दावन हित जासु।
नगधर कमला सकत बर, बिपुंगबासन आसु।।2।।
मृदु धुनि करि मुरली पगी, लगी रसै हरिगात।
या मुरली की है अली, बनी भली बिधि बात।।3।।
घन जोबन नय चातुरी, सुन्दरता मृदु बोल।
मनमोहन नेहै बिना, सब खैहै कै मोल।।4।।
छाय रही सखि बिरह सों, बे आबी तन छाम।
पी आए लखि बरि उठी, महताबी सी बाम।।5।।
प्रथमहि पारद मैं रही, फिरि सौदामिनि माह।
तरलाई भामिनि-दृगनि, अब आई ब्रज नाह।।6।।
जमुनातट नटनागरै, निरखि रही ललचाइ।
बार-बार भरि गागरै, बारि ढारि मुसक्याइ।।7।।
रुचिराई चितवनि निकनि, चलनि चातुरी चारु।
हित चित की रुचि चुनि दई, सुनि तोही करतारु।।8।।
बढ़ि बढ़ि मुख समता लिए, चढ़ि आए निरसंक।
तातै रंक मयंक री, पायौ अंक कलंक।।9।।
कोटि जतन करि करि थकी, सुधिहि सकी न सम्भारि।
छाक छयल छवि की छकी, जकी रही यह नारि।।10।।