दोहा / भाग 2 / बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’
दृग थाके अवलोकि कैं, मन अनन्त की लीक।
यह अहनिशि चलिबौ भयो, गति को स्वयं प्रतीक।।11।।
अरुझानी मन भावना, मुरझानी हिय आस।
पथ की न-दूति विचार कै, सकुचि रह्यो उल्लास।।12।।
उन, जिन दीन्ही चरण गति, उन जिन दियो विकास।
उन, जिन पथ निर्मित कियौ, उनकौ कौन विसास।।13।।
मुरि देख्यौ गत पथ; मिले, द्वै पद चिह्न अनेक।
पै निज पग में ना मिली, चार चरण की रेख।।14।।
अपने बेगाने भये, कोऊ देत न संग।
जग जन क्यों यारी करें, जब हम नंग धड़ंग।।15।।
जिन्हें दियो हिय नेह, वे, कब पूछत हम कौन।
कहा हमारो नाम है, कितै हमारो भौन।।16।।
पूछहु सब मिलि आज तुम, हमारो नामरु गाँव।
हम अनिकेतन जनम के, हमारो कहूँ न ठाँव।।17।।
पथ चलिबे की रंचहू, रही न अब जिय चाह।
शिथिल गाथ संश्लथ चरण, भंग भयो उत्साह।।18।।
अब लों आए चलत हम, पै न सर्यो कछु काम।
अपने पीतम की मिली, कहूँ न ठौर, न ठाम।।19।।
धिक ऐसो मग संचरण, धिक यह पद-विन्यास।
जो न सकै पहुंचाय कछु, अपने पिय के पास।।20।।