दोहा / भाग 2 / मतिराम
झूठे ही ब्रज में लग्यो, मोहिं कलंक गुपाल।
सांचे हूँ कबहूँ हिये, लगे न तुम नंदलाल।।11।।
लाल तिहारे संग में, खेले खेल बलाइ।
मूँदत मेरे नैन हो, करनि कपूर लगाइ।।12।।
अद्भुत या धन को तिमिर, मो पै कह्यो न जाइ।
ज्यों-ज्यों मनिगन जगमगत, त्यों-त्यों अति अधिकाइ।।13।।
कोटी-कोटी मतिराम कहि, जतन करो सब आय।
फाटे मन अरु दूध मैं, नेह नहीं ठहराय।।14।।
दिपै देह दीपति गयौ, दीप बयारि बुझाइ।
अंचल ओट किये तऊ, चली नवेली जाइ।।15।।
मोमन सुक लौं उडिगयौ, अब क्यों हूँ न पत्याइ।
बसि मोहन बनमाल में, रह्यो बनाउ बनाइ।।16।।
सुबरन बेलि तमाल सों, धन सो दामिनि देह।
तूँ राजति घनस्याम सों, राधे सरस सनेह।।17।।
नर नारी सब जपत हैं, घर-घर हरिको नाउँ।
मेरे मुँह धोखें कढ़त, परत गाज ब्रज गाउँ।।18।।
निसि-दिन निंदति नंद है, छिन-छिन सासु रिसाति।
प्रथम भए सुत को बहू, अंकहि लेति लजाति।।19।।
अब तेरो बसिबो इहाँ नाहिंन उचित मराल।
सकल सूखि पानिप गयो, भयो पंकमय ताल।।20।।