दोहा / भाग 2 / रत्नावली देवी
सोवत सों पिय जगि गये, जगिहु गई हों सोइ।
कबहुँ कि अब रतनावलिहिं, आय जगावें मोइ।।11।।
सुवरन पिय संग हों लसी, रतनावलि सम कांचु।
तिहि बिछुरत रतनावली, रही कांचु अब सांचु।।12।।
राम जासु हिरदे बसत, सो पिय मम उर धाम।
एक बसत दोउ बसैं, रतन भाग अभिराम।।13।।
मोइ दीनों संदेस पिय, अनुज नंद के हाथ।
रतन समुझि जनि पृथक मोहि, जो सुमिरत रघुनाथ।।14।।
दुषनु भोगि रतनावली, मन महं जनि दुषियाइ।
पापनु फल दुष भोगि तू, पुनि निरमल ह्वै जाई।।15।।
रतनावलि भवसिंधु मधि, तिय जीवन की नाव।
पिय केवलट बिन कौन जग, षेय किनारे लाव।।16।।
हों न उऋन पिय सों भई, सेवा करि इन हाथ।
अब हों पावहुँ कौन बिधि सदगति दीना नाथ।।17।।
पति पद सेवा सों रहित, रतन पादुका सेइ।
गिरत नाव सों रज्जु तिहि, सरित पार करि देइ।।18।।
मलिया सींची बिबिध बिधि, रतन लता करि प्यार।
नहिं बसन्त आगम भयो, तब लगि परयो तुसार।।19।।
नारि सोइ बड़भागिनी, जाके पीतम पास।
लषि लषि चष सीतल करै, हीतल लहै हुलास।।20।।