भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दोहा / भाग 2 / राधावल्लभ पाण्डेय

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सब बिधि सब सों है बड़ो, होत यहै मृगराज।
जो न बड़प्पन बोरतो, बनि गुलाब गजराज।।11।।

नहिं पर हाथन अन्न जल, नहिं कौरन पर हार।
ग्राम सिंह सो तो भले, सहज स्वतन्त्र सियार।।12।।

ज्ञान बघारे कौन फल, पाँव परो जो काठ।
बन्दी शुक मुक्ति न लहत, राम नाम के पाठ।।13।।

बल बिन बन्धु न बनि सकत, दीन बन्धु भगवान।
बनि नृसिंह प्रह्लाद के, राखि सके प्रभु प्रान।।14।।

बन्धु निबल जो करि सकत, कहूँ सबलन को जेरे।
तौ हुइहैं बस मृगन के, कबहू मृग पति शेर।।15।।

निबलहुँ की लहि सबल बल, बन्धु हवा बँधि जाय।
मुई खाल परि मनुज कर, सार देत भसमाय।।16।।

जनम भरत बँधवाय गर, सत-सरवस्व दुहाय।
पूजा गो पूजा सरिस, चाहै बन्ध बलाय।।17।।

शासित होते सबल यदि, होत निबल सिरताज।
बँधत सिंह तौ रजक घर, गधे बनत मृगराज।।18।।

होत प्रलय में निबल अणु, छिन भिन्न लाचार।
सबल बनत जब मिलि बहुरि, प्रगटावत संसार।।19।।

सुर असुरन सो बन्धु तब, जीति सकै संग्राम।
प्रकटे जब पशुबल सहित, हरि पूरण बलधाम।।20।।