भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दोहा / भाग 2 / रामेश्वर शुक्ल ‘करुण’

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बेड़ा भारत भूमि कौ, किमि करिहैं ये पार।
नित्य नशा नेतृत्व कौ, जिन पै रहत सवार।।11।।

पावस के कृमि कीट लौं, उपजैं नेता भूरि।
सोई सुजन सराहिये, करै श्रमिक-दुख दूरि।।12।।

होत, भये, ह्वै हैं सदा, सकै न कोई थाम।
रोटी के बिन विश्व में, नर-नाशक संग्राम।।13।।

एक दिवस की भूख तें, होत मनुज बेहाल।
तीसौ दिन भूखे रहैं, तिनके कौन हवाल।।14।।

किमि दानवता भूख की, समझै धनिक अमीर।
कबहुँ कि जानै बाँझ हूँ, प्रबल प्रसूती-पीर।।15।।

सेवा-धरम निबाहि नित, करत अपावन पूत।
छूत छुड़ावत जगत की, ते किमि भये अछूत।।16।।

चोरी-जारी नहिं करहिं, नहिं नित बैठे खाहिं।
केहि कसूर धौं बिप्र जी, हम सों सदा घिनाहिं।।17।।

क्यों न अभागे हिन्द की, बढ़हि बिपत्ति अकूत।
कोटिन पूत-सपूत जहँ समझे जात अछूत।।18।।

सेवा के शुभ मर्म कौ, करि नीके निरधार।
गाँधी याँचत ईश ते, हरिजन-घर अवतार।।19।।

विश्वम्भर, महि-देव, शिव, ग्राम-देव, गुनधाम।
महा महीपति, धान्यपति, कृषिपति, कृषक-ललाम।।20।।