दोहा / भाग 3 / बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’
जब इतनौ पथ चलि चुके, तब जिय उठ्यो विचार।
यह प्रवास असफल भयौ, यह जीवन निस्तार।।21।।
चिर जीवन इक जनम में, कैसे बाँधो जाय।
किमि अनन्त आकाश ग्रह, अंजलि बीच समाय।।22।।
बेदरदी दर-दर फिरे, तुव कारन हम दीन।
खोजत तुमको ह्वै गये, हम ‘नवीन’ प्राचीन।।23।।
चिर रहस्य को रंग
सहसा उठी अशेष की, मूक हूक हिय बीच।
कोहं? कोहं? कहि उठै, हम आतुर दृग मींच।।24।।
पूछत निज को भेद यह, बीत गये युग-कल्प।
तऊ न कछु उत्तर मिल्यौं, तोष न पायौ स्वल्प।।25।।
देखि निखिल ब्राह्माण्ड कौ, यह अहनिसि को रास।
अपनो हू चिर भ्रमण लखि, हिय नित रहत उदास।।26।।
भ्रमित सूर्य, उडुराजि, शशि, भ्रमित भूमि आकाश।
घूर्णित अणु-परमाणु सब, चकित शोणित-रास।।27।।
रास-चक्र में परिभ्रम, जड़ चेतन एक संग।
पै न खुल्यौ या भ्रमण के, चिर रहस्य को रंग।।28।।
अहो कौन हम बावरे? कहा हमारो नाम।
हम पूछत या सृष्टि में, कौन हमारो काम।।29।।
या दिक-काल-प्रवाह की, द्रुत मण्डल गति बीच।
कौन बिसासी नेह में, पटक्यो बरबस खींच।।30।।