दोहा / भाग 3 / रामेश्वर शुक्ल ‘करुण’
सीस गठा, पग पान ही, कर हँसिया रज माथ।
यहि बानिक उरपुर बसौ, सदा सुखेती-नाथ।।21।।
रहे सकल सुख साज के, साधन-मूल-किसान।
तिनके नासत ही भयो, बंटाढ़ार, महान।।22।।
याहू तें बढ़ि विश्व मँह, ह्वैहै कहुँ अन्याय।
जो उपजावत अन्न वह, मरत अन्न बिनुहाय।।23।।
दीन-मलीन अधीन ह्वै, कब तें करत पुकार।
बन-रोदन सी होत है, किन्तु किसान-गुहार।।24।।
कृषक-बधूटेन की दशा, को कवि सकै बखान।
लाज निवारन हेतु जो, नहिं पातीं परिधान।।25।।
कीन्हे रूप कुरूप यह, लीन्हे लरिका चार।
कौन खरी बिपदा भरी, दरति दराने दार।।26।।
श्रमिकः श्रमिक, हाँ हौं वहै, बेंचहिं श्रम अनमोल।
दीन दशा तिनकी न क्यों, देखहु आँखिन खोल।।27।।
जब लौं ‘श्रम’ अरु ‘उपज’ कौ, होत न साम्य विभाग।
बुझै बुझाए किमि कहौ, यह अशान्ति की आग।।28।।
इक फूँकहिं बहु बित्त नित, पान-सियारन माहिं।
एकहिं करि श्रम कठिन हूँ रोटिन को ढँग नाहिं।।29।।
इक शतरंजन मैं रमे, मनरंजन के हेत।
एकहिं घोर-कठोर श्रम, साँसहुं लेन न देत।।30।।