दोहा / भाग 4 / चन्द्रभान सिंह ‘रज’
उत ससि ‘रज’ इत चंद मुख, उत कलंक इत बिन्द।
उत कुरंग इत नैन मृग, चख चकोर गोविन्द।।31।।
‘रज’ सुमुखी तिय पीठ पर, पड़ी लटैं इमि छुट्ट।
मनहु सुधारस लेत अहि, चढ़े ससी पर जुट्ट।।32।।
प्यारी सिर बेनी छुटी, परी पीठ पर आय।
शेष अमी ‘रज’ चखन हित, चढ़ हिम शिल ह्वै धाय।।33।।
बड़े लजीले सजल ‘रज’, मदमाते रति मैन।
अजब रसीले सित असित, गजब सलोने नैन।।34।।
नैन फाँस की गाँस तें, दुसह दुःख ह्वै जाय।
ना निकसै ना दुःख मिटै, पीर सुरज अधिकाय।।35।।
कजरारे कारे दृगन, छलत छबीले चोर।
अनियारी ‘रज’ बाल की, लगत लजीली कोर।।36।।
लोचन सित ‘रज’ असित में, लोहित सुतिल विसाल।
मनहु बीधिगे मीन द्वै, लाल रेसमी जाल।।37।।
नैन कटारी भौंह धनु, बरुनि प्रखर हैं बान।
पलक ढाल की ओट ‘रज’, घालत मैन महान।।38।।
गजब गलाबी गाल बिच, ‘रज’ तिल इमि छबि देत।
मनहु चन्द्र बिन स्यामता, मधुप कमल रस लेत।।39।।
जाके उर ए होत ‘रज’, होति न ताको पीर।
पै जो ताकत हैं इन्हैं, तेहि मन धरत न धीर।।40।।