दोहा / भाग 4 / दीनानाथ अशंक
विपदा से हो कर विवश, भूला न दो निज रूप।
शीतलता तजता नहीं, हिम खाकर भी धूप।।31।।
करते हो बैठे हुए, जब तक सोच विचार।
तब तक ही हैं दीखते, पथ में विघ्न हजार।।32।।
कष्ट कण्टकों में खिला, जिनका जीवन फूल।
मिली उन्हीं को सर्वदा, यशोगन्ध अनुकूल।।33।।
नर जीवन जिस प्रेम से, ज्योतिर्मय बन जाय।
उसी प्रेम को मानता, शुद्ध साधु समुदाय।।34।।
आवरणों को भेद कर, ऊपर आती आग।
कब तक रहता है छिपा, अन्तर का अनुराग।।35।।
अपना अपना है नहीं, अपना उसे बिचार।
अपनावे जिसको हृदय, अन्तर्भेद बिसार।।36।।
मन्द न पड़ने दो कभी, अन्तर का उत्साह।
शूर बनाते यत्न से, काँटों मंे भी राह।।37।।
पिल पड़ते चल चित्त में, मद, मोहादि विकार।
वे छत के घर में यथा, मेह मूसलाधार।।38।।
फूली हुई गुलाब सी, शीलवती सुख-मूल।
मिलती है सौभाग्य से, कुल-बाला अनुकूल।।39।।
प्रेमी के मन में कहाँ इच्छा के हित ठौर।
क्या पूरित भी पात्र में, अट सकता कुछ और।।40।।